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________________ हैं और प्रारम्भ से ही ये ज्ञान में विद्यमान रहते हैं । अप्रमा ज्ञान भी प्रारम्भ में प्रमा रूप ही उत्पन्न होता है, बाद में अप्रमा रूप सिद्ध होता है। यहां पुनः प्रश्न हो सकता है कि तब तो प्रामाण्य की भांति अप्रामाण्य भी उत्पत्ति की दृष्टि से स्वतः ही हुआ। उसका निराकरण ऐसे हो सकता है कि ज्ञान करण का अपना स्वभाव दोष रहित ही होता है तथा ये दोष रहित कारण स्वभावतः ही प्रमा रूप ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु जब कभी उनमें बाहर से दोष उत्पन्न हो जाते हैं, तब वह अप्रमा रूप ज्ञान को पैदा करते हैं । इन्द्रियों के स्वभाव के विपरीत बाहर से दोष आने से परतः अप्रामाण्य पैदा होता है । ज्ञप्ति की दृष्टि से प्रामाण्य की चर्चा में कुमारिल कहते हैं कि किसी भी ज्ञान के प्रामाण्य का ज्ञान उसके बोधात्मकत्व की प्राप्ति के साथ ही हो जाता है तथा इसके अप्रामाण्य का ज्ञान उसके बाधक प्रत्यय या उस ज्ञान के कारण में दोष का पता लगने से होता है । अतः ज्ञप्ति की दृष्टि से भी प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परतः है। नैयायिक मत किन्तु नैयायिक प्रामाण्य के स्वतः होने का खण्डन करते हैं। उनके अनुसार प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही परतः होते हैं । वह भी उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों दृष्टि से । नैयायिकों का कहना है कि यदि ज्ञान प्रामाण्य स्वतः गृहीत हो तो यह ज्ञान प्रमाण है या नहीं, इस प्रकार का संशय ज्ञान की प्रामाणिकता के विषय में उत्पन्न नहीं हो सकता। उनके अनुसार प्रमाण की प्रमाणता का ज्ञान उन्हीं कारणों से नहीं होता जिनसे प्रमाण की उत्पत्ति होती है प्रत्युत संवाद से प्रामाण्य और बाधक प्रत्यय से अप्रामाण्य आता है । नैयायिक प्रामाण्य का निश्चय अनुमान, जो ज्ञान ग्राहक सामग्री से भिन्न है, से मानते हैं और यह अनुमान के बाद तदनुसार हुई प्रवृत्ति की सफलता पर निर्भर है । जैसे हमें कहीं पानी का ज्ञान हुआ। तदनुसार हम पानी पीने वहां गये और पानी की उपलब्धि होने पर हम अनुमान करेंगे कि पहले जो हमें "वहां जल है" इस प्रकार का ज्ञान हुआ था, वह सर्वथा सत्य था। इसके विपरीत यदि वहां जाने पर पानी उपलब्ध नहीं होता तो हमारी प्रवृत्ति बिफल हो गई और तब हमने अनुमान से यह ज्ञान किया कि यहां पर पानी का जो ज्ञान था वह अप्रमाण था। इस प्रकार ज्ञप्ति की दृष्टि से प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों परत: सिद्ध होते हैं। तथा उत्पत्ति की दृष्टि से भी ज्ञानोत्पादक इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि सामग्रियों से भिन्न-गुण और दोष से ही क्रमशः ज्ञान के प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य की उत्पत्ति होती है। यद्यपि न्याय दर्शन के विरुद्ध अनवस्था दोष को आपत्ति की जाती है किन्तु यह ठीक नहीं। हम प्रामाण्य का अर्थ ज्ञान तथा बाह्य जगत् में सामंजस्य स्थापित करना समझें तब प्रामाण्यीकरण में दोष की संभावना है किन्तु ज्ञान का वास्तविक अर्थ विषयविशेष की ओर संकेत करना है । ज्ञान न ही मनुष्य को उस स्थान पर ले जाता है जहां विषय है और न ही विषय को ज्ञाता के पास उठा लाता है । ज्ञान में विषय का संकेत ज्ञाता में क्रिया की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है तथा उस क्रिया की सफलता ही से विषय की प्राप्ति तथा ज्ञान का प्रामाण्य है। विषय की प्राप्ति होने से हमारी वह इच्छा खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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