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________________ संवेध होता है अतः अप्रामाण्य परतः है । ____ शास्त्र दीपिका में नैयायिकों के परतः प्रामाण्य का खण्डन करते हुए कहा है कि प्रामाण्य को परत: मानने से अनवस्था दोष का उद्गम हो जायेगा अतः स्वतः प्रामाण्य ही युक्तियुक्त है । मथुरा तकं वागीश भी प्रभाकर के इस मत को युक्तियुक्त मानते हैं ।२१ स्वतः प्रामाण्यवाद की स्थापना में कुमारिल भी वही तरीका अपनाते हैं, जो प्रभाकर ने अपनाया है । बोधात्मकता को प्रामाण्य कहकर उन्होंने भी प्रमा और अप्रमा के भेद को समाप्त कर दिया है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है । बोधात्मकता के रूप में प्रामाण्य की परिभाषा में समागत दोष का निराकरण करने हेतु उम्बेक कुमारिल के पद की व्याख्या भिन्न रूप से करते हैं। बोधात्मकत्व प्रमा और अप्रमा में समान रूप से विद्यमान होता है, अत: यह अतिव्याप्त होने से लक्षण के रूप में निरूपित नहीं किया जा सकता, तदर्थ उन्होंने अर्थ अविसंवादित्व का लक्षण में निवेश किया। इससे यह भी स्पष्ट ध्वनित होता है कि अविसंवादित्व केवल प्रमा का ही लक्षण होगा । ज्यों ही विषय में विसंवाद उत्पन्न होगा वह अप्रमा की कोटि में आ जायेगा। इससे मीमांसकों के स्वतः प्रामाण्यवाद तथा परतः अप्रामाण्यवाद दोनों पुष्ट हो जाते हैं। किसी भी ज्ञान का जो विषय होता है उसका जबतक बाध न हो वह प्रामाण्यरूप ज्ञात होता है और उसका परत. बाध होने के कारण वह परतः अप्रामाण्य होता है । उपर्युक्त विवेचन भाट्ट मीमांसकों के स्वतः प्रामाण्य और परतः अप्रामाण्य को विवेचित करता है, किन्तु यहां एक प्रश्न है-भाट्ट मीमांसक के अनुसार ज्ञान स्वतः प्रकाशित नहीं है। ज्ञान का ज्ञान वे ज्ञातता से स्वीकार करते हैं अत: इस विषय में वे परतः प्रकाशवादी हैं पर उनका कथन है कि इस प्रकार ज्ञान परतः प्रामाण्य नहीं होगा क्योंकि ज्ञातता की उत्पत्ति भी ज्ञानोत्पादक सामग्री से ही होती है। किन्तु केशव मिश्र२२ मीमांसक के इस मत का खण्डन करते हैं । चूंकि इस मत के अनुसार ज्ञान का विषय वही हो सकता है जो ज्ञान से उत्पन्न ज्ञातता का आधार हो । ज्ञान सदैव वर्तमान में उत्पन्न होता है तथा वर्तमान ज्ञातता का आधार वर्तमान पदार्थ ही हो सकता है। अतीत तथा अनागत पदार्थों का सम्प्रति कोई अस्तित्व न होने के कारण ज्ञान के द्वारा इस समय हम ज्ञातता नामक धर्म की उत्पत्ति नहीं कर सकते । फलत: समस्त भूतकालीन और भविष्यकालीन विषय सर्वथा अज्ञात होंगे, जो अनुभव विरुद्ध है। ज्ञातता को स्वीकार करने से इसमें अनवस्था दोष भी आता है । क्योंकि ज्ञातता नाम का यह धर्म स्वयं भी ज्ञान का विषय है और विषय होने से इसके लिए हमें इसमें ज्ञातता का धर्म उत्पन्न मानना होगा और इस प्रकार यह अन्तविहीन शृंखला चालू ही रहेगी। जैसे यथार्थ ज्ञान की ज्ञातता का बोध स्वतः होता है वैसे अयथार्थ ज्ञान की ज्ञातता भी स्वतः संवेद्य होनी चाहिए । फलत: अप्रामाण्य भी परतः न होकर स्वतः होना चाहिए किन्तु यह बात उनके परत: अप्रामाण्य के विरुद्ध है। इन दोषों से बचने हेतु पार्थसारथी ने२३ कहा है कि वास्तव में सत्य ज्ञान सत्य ही उत्पन्न होता है और मिथ्या ज्ञान मिथ्या ही । प्रमात्व और अप्रमात्व ज्ञान के गुण १६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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