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जाने की सूचना है । परस्पर विरोधाभास से बहुल वेयालियं की बात मान्य कैसे की जा सकती है। ऐसे अप्रमाणिक वचन, 'चन्दगविज्झय' गाथा ६७ में साधु के उत्कृष्ट तीन भव का उल्लेख है जबकि अन्य आगमों की मान्यता में उत्कृष्ट पंद्रह भव में मोक्ष जाता
देविन्द स्तव' में स्त्री के लिए अहो सुन्दरी ! आमंत्रण है। आचारांग में स्त्री के लिए बहिन का संबोधन है । सुन्दरी का संबोधन समुचित नहीं है।
'महापच्चक्खाण'१९ गाथा ६२ में देवेन्द्र तथा चक्रवर्तीत्व समस्त जीव अनंतबार उपलब्ध हुए हैं। प्रत्येक जीव चक्रवर्तीत्व अनंतबार उपलब्ध नहीं हो सकते । यह कथन आगम विरुद्ध है, इसको मान्य नहीं किया जा सकता।
वृत्ति, चूणि, भाष्य, नियुक्तियां भी भगवान् निर्वाण के पश्चात् रची गई हैं । जो रचयिता हैं वे आप्त पुरुष, चौदह, दश पूर्वधारी भी नहीं हैं । तब उनके द्वारा रची हुई कृतियों को आगम की तरह कैसे माना जाए । स्वयं उनके रचयिता वृत्तिकार जब' संदेह से पूरित हैं, वे अपनी समझ में न आने वाले तत्व को केवलज्ञानी को सौंपते हैं । जब वे स्वयं संदेह से मुक्त नहीं हैं, तब सही आगम की व्याख्या कैसे करेंगे ? उसको सब कैसे मानेंगे? आगम के अनुरूप व्याख्याएं उनकी भी मान्य हैं, और भी किसी की मान्य की जा सकती हैं, आगम के विरुद्ध और असम्मत एक वाक्य को भी कैसे माना जा सकता है।
इसी प्रकार अन्य ग्रन्थों में भी अपनी मति से आगम विरुद्ध मनगढंत तथ्यों का निरूपण कर दिया है इसलिए वे मान्य नहीं हैं । महाकप्प में साधु और श्रावक को समान प्रायश्चित आता है। आगम ग्रन्थों में समान प्रायश्चित की चर्चा नहीं है। एक प्रसंग बड़ा विनोद भरा है। उसमें कहा गया है कि जिन मंदिर के लिए पत्थर ढोता वृषभ यदि मृत्यु को वरण कर लेता है, वह देवलोक में उत्पन्न होता है ।
'जिण भवणस्स अठा भार वहंति सघड़ सयुत्ता
तेण गुणेण मरीओ खिप्पं गच्छंति सुर भवणं ।'
जयाचार्य की दृष्टि स्पष्ट एवं युक्तियुक्त है । आप्त वचन को वे स्वीकार करने में तत्पर हैं । उनकी दृष्टि में ८४ अथवा ४५ या ३२ आदि का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है । श्री कालूरामजी के पद्यमय प्रश्नों को यहां उद्धृत करना उपयुक्त होगा
'पंच अधिक चालीस तो, कह्या सूत्र जिनराम । द्वत्रिंश तुम मानता, कुण हेतु के न्याय ॥ साचा बत्तीस मानता और न मानो साच ।
के कोई प्रगट्यो ज्ञान तुझ, अथवा मन की खांच ॥'
जयाचार्य ने इनका उत्तर पद्यों में ही दिया जो प्रश्नोत्तर तत्वबोध के आगम एवं विसंवाद अधिकार में अंकित है।
एकादश अंग को जयाचार्य आप्त पुरुषों द्वारा ग्रंथित भगवान् महावीर का उपदेश मानते हैं। उनकी आस्था का केन्द्र ग्यारह अंग हैं, उनसे मिलते हुए उपांग एवं अन्य आगम भी मानने योग्य हैं
बण्ड १६, अंक १ (जून, ६०)
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