SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के विकास में सहयोग किया है, उनमें वादिराज का स्थान महत्त्वपूर्ण है । वादिराज के परिचय, कीर्तन और उनके ग्रन्थों के वैविध्य से सिद्ध है कि वे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् । न्याय और साहित्य दोनों के क्षेत्र में उनकी अगाध पैठ थी । तृतीय अध्याय : कथावस्तु और पूर्व कविप्रशस्ति पार्श्वनाथचरित महाकाव्य का मूल स्रोत गुणभद्राचार्य का उत्तरपुराण है । यद्यपि उत्तरपुराण के पूर्व तिलोयपण्णत्ती और पाश्र्वाभ्युदय की रचना हो चुकी थी, किन्तु इन्हें पार्श्वनाथचरित का मूल स्रोत नहीं माना जा पकता है, क्योंकि तिलोयपण्णत्ती में मातापिता के नाम आदि का संक्षिप्त निर्देश है और पार्श्वाभ्युदय में जीवन की एकाध घटना है, जबकि पार्श्वनाथचरित में जीवन का सांगोपांग वर्णन हुआ है । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा निर्दिष्ट पद्मकीर्ति का पासणाहचरिउ वादिराजकृत पार्श्वनाथचरित के बाद की रचना है । अतः उसका तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है । वादिराज ने पाश्वनाथचरित की कथावस्तु को स्वाभाविक, हृदयग्राही और प्रभावी बनाने के लिए अपनी कल्पना से आवश्यक परिवर्तन और परिवर्धन भी किये हैं, किन्तु कवि की कल्पना ने कहीं भी ऐतिहासिक मूल परिवेश का त्याग नहीं किया है । वादिराज ने मंगलाचरण के प्रसंग में कविपरम्परा का निर्वाह करते हुए अपने पूर्ववर्ती 14 जैन कवियों और आचार्यों गृद्धपिच्छ, स्वामी समन्तभद्र, देवनन्दि, अकलंक, वादिसिंह, सन्मति, जिनसेन, अनन्तकीर्ति, पाल्यकीर्ति ( शाकटायन ), धनञ्जय, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, विशेषवादि और वीरनन्दि का उल्लेख किया है । कविकृत यह उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इनका उल्लेख कालक्रमानुसार किया गया है । इतिहास के परिप्र ेक्ष्य में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण इस अध्याय में इन कवियों का परिचय देते हुए समय निर्धारण किया गया है । संस्कृत साहित्य के इतिहास में इन कवियों और आचार्यों की भूमिका का आकलन सभी दृष्टियों से निःसन्देह उपादेय है । चतुर्थ अध्याय : काव्यशास्त्रीय समीक्षा काव्यशास्त्रीय दृष्टि से पार्श्वनाथचरित एक सफल महाकाव्य है । काव्याचार्यों ने महाकाव्य में जिन गुणों का होना आवश्यक माना है, उन सबका सन्निवेश पाश्र्वनाथचरित में हुआ है । अन्य जैन चरित काव्यों की तरह पाश्र्वनाथचरित में अंगी रस के रूप में शान्त रस का परिपाक हुआ है । प्राय. अन्य सभी रसों की व्यंजना अंगरसों के रूप में सफलतापूर्वक हुई है। प्रयो की दृष्टि से शान्त के ही समान शृंगार रस भी अनेक स्थलों में व्यापक 1 है । विप्रलंभ शृंगार की अपेक्षा संभोग श्रृंगार के चित्र अधिक प्रभावी हैं । सामान्यतः सभी रसों की अभिव्यंजना में वादिराज की समान गति है । संस्कृतवाङ् मय में अलंकारों का सर्वाधिक महत्त्व प्रतिपादित है । पार्श्वनाथचरित में वर्णनों को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए तथा परम्परया रसों को पुष्ट करने के लिए शब्द और अर्थ उभयविध अलंकारों का सन्निवेश किया गया है । शब्दालंकारों में अनुप्रास की शोभा, यमक की मनोरमता, श्लेष की संयोजना, और चित्रालंकारों की विचित्रता पाठकों को अलौकिक आनन्द प्रदान करती है । खण्ड ४, अंक ३-४ २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy