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के धर्ममय जीवन में जिन महान विभूतियों का चिरस्थायी प्रभाव है, उनमें जैन सम्प्रदाय के पूज्य तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ अन्यतम हैं। उनके पावन जीवन को जनमानस में प्रचारित करने की भावना से रचित पार्श्वनाथचरित का शोधात्मक अध्ययन इस उपेक्षित काव्य के विश्लेषण करने में मेरा सावधान पदक्षेप है। मैंने तथ्यनिष्ठा के साथ पार्श्वनाथचरित महाकाव्य का सम्यक् विश्लेषण करते हुए अनुसंधान करने का जो विनम्र प्रयास किया है, उसका सारसंक्षेप विद्वानों के समक्ष उपस्थित है। प्रकृत शोध-प्रबंध सात अध्यायों में विभक्त है ।
प्रथम अध्यायः चरितकाब्य और पार्श्वनाथचरित
___ संस्कृत-साहित्य में चरितकाव्यों की एक लम्बी परम्परा है, जो ईसा की सप्तम शताब्दी से प्रारम्भ होती है उसके बाद अद्यावधि शताधिक चरितकाव्य लिखे गये हैं। इन काव्यों में जैन धर्म के सम्मान्य तिरसठ शलाका पुरुषों, चौबीस कामदेवों, कतिपय अन्य पुण्यपुरुषों, महिलाओं एवं राजाओं का चरित गुम्फित है । जिन काव्यों में राजाओं का चरित गुम्फित है, उन्हें ऐतिहासिक चरितकाव्य और जिन में शलाका पुरुषों या अन्य पुण्यपुरुषों का आख्यान निबद्ध है, उन्हें पौराणिक चरित काव्य कहा जा सकता है। राम-लक्ष्मण, कृष्ण-बलदेव, प्रद्युम्न, हनुमान् आदि के प्रति जैनों का भी सदा से पूज्यभाव रहा है। अतएव जैनों ने अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं के अनुसार इनके जीवनचरित पर अनेक काव्यों की रचना की है । यही नहीं, प्राकृत की तरह संस्कृत भाषा में भी जैन कवियों ने चरितकाव्य लिखने का श्रीगणेश रामकथा से ही किया है । जैन परम्परा में सम्पूर्ण वाङमय को चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है । इनमें चरितकाव्य प्रथमानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। प्रथमानुयोग में परमार्थ विषय का कथन करने वाले तिरसठ शलाका पुरुष एवं अन्य धार्मिक व्यक्तियों के जीवनचरित का वर्णन होता है।
जटासिंहनन्दि का वरांगचरित (7-8वीं शताब्दी का सन्धिकाल), वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित, महासेन का प्रद्य म्नचरित और असग का वीरवर्धमानचरित (10वीं शताब्दी), वादिराजसूरि का पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित (11वीं शताब्दी), हेमचन्द्र का कुमारपालचरित (12वीं शताब्दी) और उदयप्रभसूरि का संघपतिवरित या धर्माभ्युदय महाकाव्य (13वीं शताब्दी) संस्कृत साहित्य के प्रतिनिधि चरितकाव्य है। इनमें हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और उदयप्रभसूरि के संघपतिवरित का इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त महत्त्व है । काव्य निर्माण की संख्या की दृष्टि से 14वीं-15वीं शताब्दी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस समय के कवियों में भट्टारक सकलकीति प्रमुख हैं। 16वीं से 20वीं शताब्दी में अब तक लगभग चालीस चरितकाव्यों का निर्माण हुआ। बीसवीं शताब्दी में श्री भूरामल्लशास्त्री (श्री ज्ञानसागर महाराज) ने अनेक काव्यों की रचना की, जिनमें महावीरचरित या वीरोदय और समद्रदत्तचरित उत्कृष्ट कोटि के चरितकाव्य हैं । इन काव्यों में भाषा और भाव तथा नवीन छन्दोनिर्माण के क्षेत्र में कवि ने अपनी प्रतिभा का अनुपम निदर्शन प्रस्तुत किया है।
खण्ड ४, अंक ३.४
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