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उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग वर्ण्य विषय के चित्रण की अनिवार्यता को दृष्टि में रखकर किया गया है। तीर्थंकरों, तीर्थों तथा अन्य प्रसंगों में अलौकिक भावनाओं की अभिव्यंजना के लिए इस अलंकार का प्रचुर प्रयोग हुआ है । उत्प्रेक्षालंकार के सिद्ध कवि हैं सधारु और हीरानन्द ।
इसके अतिरिक्त अनेक अलंकारों के सफल प्रयोग जैन कवियों के हिन्दी काव्यों में परिलक्षित है । सहोक्ति, विनोक्ति, तथा अन्योक्ति अलंकारों के प्रयोग भी निराले ही कहे जाएंगे। इसी प्रकार अनन्वय, विरोधाभास की स्थिति रही है । आध्यात्मिक तथा दार्शनिक अभिव्यक्ति में जहां विचारों की गम्भीरता और विराटता की अभिव्यंजना हुई है, वहां काव्यकला चाहे भले ही उभर कर न आयी हो, किन्तु विचारों की अभिव्यंजना में इन अलंकारों का सहयोग सर्वथा स्तुत्य कहलाएगा।
जन कवियों ने काव्य में अर्थोत्कर्ष के लिए केवल शब्द-अर्थ परक अलंकारों का ही प्रयोग नहीं किया है अपितु उन्होंने चित्रालंकारों का भी सफल प्रयोग किया है । इस दृष्टि से कविवर भैय्या भगवतीदास का उल्लेखनीय स्थान रहा है।
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चार व्यक्ति एक सन्त के पास पहुंचे । वे सन्त के सान्निध्य में साधना करना चाहते थे। सन्त ने कहा कि मैं देखूगा कि तुम पात्र हो या नहीं। अभी तुम मौन हो जाओ और जब तक मैं न कहूं, मौन रखना । एक घण्टा बीता। दो बीते। तीसरा घंटा प्रारम्भ होते ही एक व्यक्ति बोला-अंधेरा छा गया है। दूसरा बोला-अभी अंधेरा कहां ? तीसरा बोला तुम दोनों ने मौन भंग कर दिया। चौथा बोला-मैं तो नहीं बोला । प्रथम दो प्रमादी थे। उनसे बोले बिना न रहा गया। तीसरा चौथा परदोषदर्शी थे।
12. तिन में नतत अमरांगना, हाव-भाव विधि नाटक बना। चंचल चपल सोम विजुली, मनु सोभा धन विचि उछली ।।
-- समवशरण की शोभा, पं. हीरानन्द ।
खण्ड ४ अंक ३-४
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