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________________ तत्काल में 'शैली' के नाम से सम्बोधित किया जाता था। इस 'काव्य- सैली' के सक्रिय सदस्यों में पंडित बनारसीदास जैन, भय्या भगवतीदास, भूधरदास, वृन्दावनदास तथा पंडित दौलतराम उलेखनीय हैं। इसी प्रकार दिल्ली, जयपुर, ईडर, जैसलमेर आदि स्थानों में इन कवियों के संगठनों का उल्लेख मिलता है। इन सैलियों के नैत्यिक कार्यक्रमों में शास्त्र- स्वाध्याय तथा तात्त्विक चर्चाओं का विवेचन मुख्य है : भट्टारक सम्प्रदाय के कवियों की देशव्यापी अनेक गद्दियाँ रही हैं जहां से वे अपने क्षेत्र के समाज में धर्म-प्रचार की बागडोर संभाला करते हैं । इस प्रकार हिन्दी के राज्याश्रित कवियों की विचारधारा और इन जैन हिन्दी कवियों की विचारधारा में कोई समानता परिलक्षित नहीं होती । राज्याश्रित हिन्दी कवियों ने संस्कृत आचार्यों के द्वारा प्रणीत काव्य-शास्त्र का अध्यन किया तथा आवश्यकतानुसार कतिपय हिन्दी कवियों ने आचार्य ग्रन्थों का प्रणयन भी किया और उन्होंने जिस काव्य का सृजन किया है, उसमें काव्य शास्त्रीय लक्षण सहज में देखे जा सकते हैं । हिन्दी के राज्याश्रित कवियों की भांति हिन्दी जैन कवियों का काव्य सृजन का लक्ष्य मात्र राज्य- वंदना तथा लोक रंजन ही नहीं रहा अपितु इन कवियों के सम्मुख जैन धर्म तथा प्राणी मात्र के कल्याणपरक धार्मिक बातों को काव्य शैली में सरलता पूर्वक अभिव्यक्त करना रहा है । इसीलिए इनके काव्य का स्वरूप तत्कालीन राज्याश्रित कवियों की नाई भिन्न प्रतीत होता है । इसके अर्थ यह नहीं हैं कि इन कवियों को लोक- चित्तानुरंजन का ध्यान ही नहीं था । इन कवियों की काव्याभिव्यक्ति में तत्कालीन प्रचलित अभिव्यक्तिगत सभी उपकरणों को सम्मिलित किया गया है । अलंकारों के प्रयोग के विषय में भी यही सत्य चरितार्थं रहा है । यहां इन कवियों द्वारा प्रयुक्त नाना अलंकारों को हम काव्य शास्त्रीय निकष के आधार पर निम्न वर्गों में विभाजित कर सकते हैं । यथा 1. उच्चतम 2. उच्चतर 3. उच्च उच्चतम कोटि में परिगणित किए जाने वाले अलंकारों के नाम निम्न प्रकार हैं - अनुप्रास, यमक, दृष्टान्त, उपमा, रूपक, पुनरुक्ति प्रकाश, श्लेष, व्यतिरेक, संदेह और उत्प्रेक्षा । इसके अतिरिक्त समासोक्ति, काव्यलिंग, अनन्वय, वीप्सा, विरोधाभास, उल्लेख आदि अनेक अलंकार साधारणतः गृहीत हुए हैं । यद्यपि इन अलंकारों के प्रयोग में चाहे शास्त्रीय तकनीक का सम्यक् उपयोग न हुआ हो तथापि भावाभिव्यक्ति में कोई बाधा नहीं आ पाई है । पन्द्रहवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक अलंकार - बहुल काव्य प्रायः नहीं रचे गए । सोलहवीं शती तक अनुप्रास, उपमा, रूपक तथा पुनरुक्ति प्रकाश जैसे अलंकारों के प्रयोग सफलतापूर्वक हुए हैं । अब यहाँ प्रत्येक अलंकार का शताब्दिक्रम से इस प्रकार अध्ययन करेंगे कि जैन हिन्दी काव्य में उनके प्रयोग की स्थिति का सम्यक् उद्घाटन हो सके । खण्ड ४, अंक ३-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only २२५ www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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