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अकलंक भट्ट के बाद आचार्य विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र, धर्म भूषण आदि समस्त जैन दार्शनिकों ने तर्क द्वारा ही व्याप्ति ग्रहण का समर्थन किया है । तर्क का स्वरूप आचार्य माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में तर्क का लक्षण इस प्रकार बतलाया है -
उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्तिज्ञानमूहः। उपलंभ (अन्वय) और अनुपलंभ (व्यतिरेक) के निमित्त से होने वाले व्याप्ति के ज्ञान को ऊह अर्थात् तर्क कहते हैं। जैसे यह साधनरूप वस्तु इस साध्य रूप वस्तु के होने पर ही होती है और साध्य रूप वस्तु के अभाव में नहीं होती है। जैसे अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के अभाव में कभी नहीं होता है । इस प्रकार साध्य और साधन में जो व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध रहता है उसका ज्ञान तर्क के द्वारा ही होता है ।
उपरि लिखित सूत्र में जो उपलंभ और अनुपलंभ शब्द आये हैं उनका तात्पर्य प्रत्यक्ष के द्वारा साध्य और साधन के भूयोदर्शन या अदर्शन से नहीं है, किन्तु उनमें दृढ़तर निश्चय और अनिश्चय से है। क्योंकि जो साध्य और साधन प्रत्यक्ष के विषय नहीं हैं किन्तु अनुमान या आगम के विषय हैं उनमें भी व्याप्तिज्ञान होता है । जैसे 'अस्त्यस्यप्राणिनो धर्मविशेषो विशिष्ट सुखादिसद्भावान्यथानुपपत्तेः' यहां धमविशेष (साध्य) का ज्ञान आगम से ही होता हैं । तथा 'आदित्यस्य गमन शक्तिसम्बन्धोऽस्ति गतिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः' यहाँ सूर्य में गमनशक्तिसम्बन्धरूप साध्य का ज्ञान उक्त अनुमान से ही होता है । गतिमत्त्व साधन का ज्ञान भी अनुमानान्तर से होता है । तथाहि-आदित्यो गतिमान् भवति देशाद् देशान्तर प्राप्तिमस्वान्यथानुपपत्तेः देवदत्तवत ।' उक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि कुछ साध्य और साधनों का ज्ञान अनुमान तथा आगम से होता है ।
व्याप्ति का स्वरूप तर्क के प्रकरण में व्याप्ति का स्वरूप जानना अत्यावश्यक है। क्योंकि व्याप्ति के ज्ञान का नाम ही तर्क है। व्याप्ति का ही दूसरा नाम अविनाभाव है। साध्य और साधन में गम्य-गमक भाव को बतलाने वाला तथा सब प्रकार के व्यभिचार से रहित जो सम्बन्धविशेष होता है उसी को व्याप्ति अथवा अविनाभाव कहते हैं। और जो व्याप्ति की प्रमिति में साधकतम होता है वह तर्क नामक एक पृथक् प्रमाण है । इलोकवातिक भाष्य में भी कहा गया है कि साध्य और साधन के सम्बन्ध में जो अज्ञान है उसकी निवृत्ति
1. परीक्षा मुख, 311.
2. साध्यसाधनयोर्गम्यगमक भावप्रयोजको व्यभिचारगन्धासहिष्णुः सम्बन्धविशेषो व्याप्तिरबिनाभाव इति च व्यपदिश्यते ।-न्यायदीपिका
____3. तस्याश्चाविनाभावापरनाम्न्या व्याप्तेः प्रमितौ यत्साधकतमं तदिदं तख्यिं पृथक प्रमाणमित्यर्थः । - न्यायदीपिका, 151पृ० 162.
खण्ड ४, अंक ३-४
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