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विजय इन्द्रिय विषय पर कर कुशल आचारी बने सुगुरु सेवा में समर्पित किया है सर्वस्व सब । कृपा पात्र विशेष 'जय' के बने फल पाये अजब ||4||
गीतक - छन्द
विजय पाई दृढमना । बहु निर्जरा की भावना ।
सोरठा
उनके कुछ वृत्तान्त, सुन्दरतम सुन लीजिए । सद्गुणमुक्ता कान्त, ग्राहक बन चुन लीजिए ||5||
दोहा
की चौकी के काम की, जय गणि ने बक्शीश । देख सरलता आपकी, सभी हिलाते शोश ||6|| मयाचन्द ईशर यहां, मघजी मेरे पास । ले मुनिवर विचरो करो, पुर-पुर धर्म प्रकाश ।।7।। जय गण की सुखपाल को, एक उठाते आप | मिलता पक्का पेटिया, लगी हुई थी छाप ||8||
ख्यात तथा शासन प्रभाकर में उनकी दीक्षा तिथि फाल्गुन कृष्ण 11 लिखी है पर जय सुजश की उक्त तिथि ही ठीक लगती है ।
उनके पहले मुनि फौजमलजी (242), नेमीचंदजी ( 243) और जोतरामजी ( 244 ) की दीक्षा हुई, ऐसा ख्यात में है । पर संभवत: इन तीनों की बड़ी दीक्षा बाद में होने से उनका और मुखारामजी का नाम पहले आया है । ख्यात में मुनि फौजमलजी की बड़ी दीक्षा का स्पष्ट उल्लेख होने से नेमीचंद जी तथा जोतराम जी की बड़ी दीक्षा बाद में हुई ऐसा प्रतीत होता है ।
2. मुनि ईशरजी के 'कार्य विभाग' चालू हुआ ही था, और उनके 'चौकी' के कार्य का क्रम आ गया । वे स्वयं नहीं जानते थे कि 'चोकी' का कार्य कैसे किया जाता है । उन्होंने साधुओं से पूछा तब उन्होंने कहा- — सन्ध्या के समय सन्तों के कपड़े मकान के बाहर या अन्दर नीचे जमीन पर पड़े हुए हों तो उन्हें उठाकर ले आना और फिर जिनके हों उन्हें 'दे देना । वे 'चोकी' देने के लिए गये और सन्तों के नीचे पड़े हुए सारे उपकरण आदि ले आए । जब साधुओं ने अपने अपने वस्त्रादिक संभाले, तब पता लगा कि ईशरजी 'चौकी' में
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गये । उन्होंने जयाचार्य से इसकी शिकायत की, तो जयाचार्य उनकी सरलता पर मन ही मन मुस्कराये और उन्हें बुलाकर कहा- तुम्हें चौकी देनी नहीं आती, अतः सदा के लिए "चौकी' के काम की बक्सीस करता हूं । देखने वाले सब विस्मित से रह गये ।
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तुलसी प्रज्ञा
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