SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तब भी मौत नहीं आई, उस दशा में हम लोगों को बड़ा खेद हुआ, और हमने जानबूझ कर क्षत्रियों से स्वयं अपना वध कराने की इच्छा की। जब मौत हमें अंक में न ले सकी, तब हम लोगों ने सर्वसम्मति से क्षत्रियों को कुपित करने का उपाय ढूंढ़ निकाला । आत्महत्या करनेवाला पुरुष शुभ लोकों को नहीं पाता, इसीलिए हमने खूब सोच-विचार कर अपने ही हाथों अपना वध नहीं किया ।" _स्वयं अपना वध करना, दूसरों से अपना वध करवाना अथवा अपने वध का अनुमोदन करना इन तीनों में कोई अन्तर नहीं होता । यह एक सिद्धान्त है । ब्राह्मणों ने अपने हाथों अपनी हत्या नहीं की, क्षत्रियों को उत्तेजित कर उनसे करवायी । अपने हाथों से अपनी आत्महत्या को बुरा समझा, दूसरों से आत्महत्या करवाना बुरा नहीं समझा । इस तरह महाभारत का उक्त कथन एक सिद्धान्त के रूप में नहीं केवल एक दलील के रूप में सामने आता है । ब्राह्मणों ने आत्महत्या को करने, कराने और अनुमोदन रूप से शुभ लोकों की प्राप्ति में बाधक नहीं माना। इसके अतिरिक्त महाभारत में आत्मघात की ऐसी अनेक घटनाएं मिलती हैं, जिनमें आत्मघातक को शुभ लोकों की प्राप्ति बतलाया गया है । उदाहरणस्वरूप एक घटना इस प्रकार है व्यास ने कहा : "जिन-जिन श्रेष्ठ स्त्रियों को अपने पति के लोक की इच्छा हो वे सत्त्वर सावधान होकर गंगा के जल में प्रवेश करें।" व्यास का यह वचन सुन कर श्रेष्ठ स्त्रियों ने श्वसुरों की आज्ञा लेकर गंगा के जल में प्रवेश किया। वे सब साध्वियां मनुष्य देह से मुक्त होकर अपने पतियों के साथ उसी समय मिल गईं। इस तरह वे गंगा में प्रवेश कर देह से मुक्त हुई और पति के समान लोक को प्राप्त किया 124 6 : आत्मघाती और प्रशौच आदि क्रिया अशौच आदि कर्म के संदर्भ में हिन्दूशास्त्रों में आत्मघातक को किस दृष्टि से देखा गया है, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख द्रष्टव्य हैं : (1) मनुस्मृति 5/89 : “जो आत्मत्यागी होते हैं, उनकी उदकक्रिया न करे । उन्हें जलांजलि नहीं दे ।" 25 (2) वशिष्ठ 23/11 : “जो आत्मत्याग करता है वह अभिशस्त महापातकी होता है। वह सपिण्डकों द्वारा किए जाने वाले प्रेतकर्म का उच्छेदक होता है । 26 24. महाभारत : 15/33/13, 22 25. आत्मत्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया। 26. य आत्मत्याग्यभिशस्तो भवति सपिण्डानां प्रेतकर्मच्छेदः । खं. ३ अं. २-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy