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. (ग) गौ और ब्राह्मण से हत का सद्य अशौच होता है । राजक्रोध से एवं युद्ध में हत का सद्य शौच होता है ।
उपर्युक्त उद्गारों से नृप-हत, श्रृंगी-हत, दंष्ट्री-हत, सर्प-हत, विप्र-हत, चांडाल हत, उदक-हत, व्यक्ति-ऐसे शब्द बनते हैं।
नृप-हत आदि शब्दों की व्याख्या करते हुए इन्हें दो तरह का बताया गया हैं (1) इच्छापूर्वक नृप आदि से हत और (2) नृप आदि द्वारा मारे गए । यहां प्रश्न हो सकता है नृप, श्रृंगी-पशु, सर्प आदि शस्त्र नहीं ताकि कोई उनके द्वारा अपना वध सम्पादन कर सके और नृप-हत आदि हो । फिर नृपादि द्वारा इच्छापूर्वक मरण प्राप्त करने का क्या अर्थ है ? इसका उत्तर यह है कि जो नृप से विग्रह करता है, उसके प्रतिकल चलता है, उसकी इच्छा आत्मघात करने की न हो तो भी उस विग्रह के फलस्वरूप उसके प्राणों का वियोग हो तो हिन्दुशास्त्रों के अनुसार आत्महनन करने वाला ही समझा जाएगा। कोई सर्प को हाथ में लेकर क्रीड़ा करता है, उससे छेडछाड़ करता है अथवा सर्पवाले क्षेत्रों से जान-बूझ कर जाना-आना करता है, उसकी इच्छा आत्मघात करने की न हो तो भी यदि सर्प के काटने से उसका मरण हो तो वह आत्मघात करनेवाला ही समझा जायेगा । जो मनुष्य दो हाथों से दुस्तर नदी को पार करने के लिए जाय और उसकी मृत्यु घटित हो तो उसे भी आत्मघात कहा गया है। इसी तरह किसी तीक्ष्ण, सींगवाली गाय को आते देख कर भी जो दूर नहीं हटता है. वर्षाकाल में अनवरत विद्युत चमकती देख कर भी जो जगत में घमता रखता है वह यदि गायादि से आहत हो, मारा जाय तो आत्मघाती माना गया है। सारांश यह है कि जिस कार्य से मर जाने की संभावना हो वैसे कार्य में जो व्यक्ति इच्छापर्वक प्रवत्त होता है अथबा उससे दूर नहीं रहता. वह नृप आदि हत आत्मघाती है। इस तरह की स्थिति न होने पर तथा पूरी सावधानी के होने पर भी जो नप आदि द्वारा मार दिया जाता है वह आत्मघाती नहीं समझा जाता और उसकी मत्यू अनिकिता मरण की कोटि में पाती है।'
(5) विधि मरण : इच्छापूर्वक शास्त्रानुमोदित मरण प्राप्त करना । यह भी अग्निप्रवेश, जल-प्रवेश, आदि रूप हो सकता है।
6. गोब्राह्मणहतानामन्वक्षं राजक्रोधाच्च युद्ध ।
___ गौतम 14/9-11 7. सर्पादिना चण्डालादिना वा विग्रहं कुर्वन् यस्तैर्हतः तस्यैवायं पिण्डदानादिनिषेधः ।
एवं दुष्टदंष्ट्रयादीनि ग्रहीतुमाभिमुख्येन गच्छतो मरणेऽयमशौचादिनिषेधः । एवं राज्ञः प्रातिकूल्यामाचरतो मरणे । एवं बाहुभ्यां नदीतरणेऽपि । एवं सर्वत्रानुसन्वेयम्।
(पराशर पृ. 591-92)
खं. ३ अ. २-३
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