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________________ किया है। उन्होंने एकाग्रमन होकर ध्यान किया- इस बालक का आयुष्य कितना है ? उन्होंने जाना कि इसका आयुष्य छह मास मात्र है। उनका मन अधीर हो गया। उन्होंने सोचा - 'इसका आयुष्य अत्यल्प है। आचार आदि आगम-ग्रन्थ समुद्रभूत - समुद्र के समान गहरे और विशाल तथा आयतयोगविस्तृत अनुष्ठान सापेक्ष हैं । यह तपस्वी (बालक) सिद्धान्त के परमार्थ को जाने बिना ही काल कर जायेगा । मुझे क्या करना चाहिये ? " उन्होंने आगे सोचा- 'अंतिम चतुर्दश पूर्वंधर मुनि अवश्य ही 'निर्यू हण' (पूर्वशास्त्र ग्रन्थों का उद्धरण) करते हैं । दशपूर्वी मुनि प्रयोजन उपस्थित होने पर निर्यू - हण करते हैं । मेरे सामने भी प्रयोजन उपस्थित हुआ है । वह है- बालक पर अनुग्रह | इसलिये मुझे निर्यूहण करना चाहिये ।' (यह सोचकर ) वे निर्यू हण करने लगे । दस अध्ययनों का निर्यू हण कार्य विकाल वेला में, जब दिन थोड़ा दोष था तब पूरा हुआ । इसलिए इस ग्रन्थ का नाम 'दश (वै) कालिक रखा गया । — उत्तराध्ययन, 1.15 आत्मा का ही दमन करना चाहिए । आत्मा ही दुर्दम है । दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है । ५२ अप्पा चेव दमेयव्वो । अप्पा हु खलु दुद्दम । पदन्तो सुही होइ अस्सि लोए परत्थ य ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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