________________
प्राचार्य ने ध्यान देकर जान लिया कि यह वही (शय्यं भव) है । उन्होंने शय्यंभव को मुनि-धर्म का उपदेश दिया। वे प्रवजित हुए। उन्होंने चौदह पूर्वो का ज्ञान अजित किया।
जब शय्यंभव प्रवजित हुए थे तब उनकी स्त्री गर्भवती थी। यह देखकर दूसरे लोग और स्वजन कहते-'यह तरुणी है। इसके कोई सन्तान नहीं है।' वे उसे पूछते-'क्या तुम गर्भवती हो ?'
वह कहती-'मनाक् (कुछ) आभास होता है ।'
यथा समय उसने एक पुत्र को जन्म दिया। बारह दिन बीतने पर स्वजन-वर्ग ने उसका नाम संस्कार किया । गर्भावस्था में लोगों के पूछने पर वह कहती-‘मनाक् (कुछ) आभास होता है', इसलिये उसका नाम 'मनक' रखा।
मनक आठ वर्ष का हुआ। एक बार उसने माता से पूछा-'मेरे पिता कौन हैं ?'
उसने कहा - 'तेरे पिता श्वेत वस्त्रधारी मुनि बन गये हैं।'
वह वहां से चला और पिता के पास जाने के लिए प्रस्थान कर गया। उस समय आचार्य (शय्यंभव) चम्पा नगरी में विहार कर रहे थे। वह वहां पहुंचा। आचार्य शौच के लिए बाहर जा रहे थे । उन्होंने उस बालक को देखा। उसने वन्दना की। उसे देखते ही गुरु के मन में स्नेह उमड़ आया। बालक का मन भी स्नेह से भर गया । गुरु ने पूछा- 'बच्चे ! कहां से आए हो ?'
उसने कहा- 'राजगृह से ।' आचार्य ने पूछा- 'वहां तुम किसके पुत्र या धेवते हो ?' उसने कहा- मैं शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूं। वे प्रवृजित हो गए हैं।' आचार्य ने कहा -'तुम क्यों आए हो ?' मनक - मैं भी दीक्षित होऊंगा। क्या आप उन्हें जानते हैं ?' आचार्य मनक- 'वे कहां हैं ?'
आचार्य-वे मेरे आत्मभूत मित्र हैं। तुम मेरे पास दीक्षा ले लो। उन्हें भी तुम देख लोगे।'
मनक--'अच्छा, ऐसा ही हो ।'
आचार्य ने मनक को दीक्षित कर लिया । स्थान पर आकर ईर्या प्रतिक्रमण करते हुए आलोचना की कि आज मुझे सचित्र वस्तु प्राप्त हुई है । मैंने इसे प्रव्रजित
खं.३ अं. २-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org