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कार्य-कारण के विषय में नयदृष्टि की मीमांसा इस प्रकार है.
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नैगम, संग्रह, व्यवहार और व्यंजन पर्यायग्राही ऋजुसूत्र – ये चार नय कार्य-कारण के सिद्धान्त को स्वीकृति देते हैं ।
शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत — ये तीन नय कार्य-कारण के सिद्धान्त को मान्य नहीं करते । इनके अनुसार कार्य अपने स्वरूप से उत्पन्न होता है । उसकी किसी दूसरे से उत्पत्ति मानना संगत नहीं है। जो अपने स्वरूप से उत्पन्न हो चुका है, उसकी दूसरे से उत्पत्ति मानना संगत नहीं है । जो अपने स्वरूप से उत्पन्न हो चुका है, उसकी दूसरे से उत्पत्ति मानने का कोई अर्थ नहीं होता । कारण यदि कार्य से अभिन्न हो तो फिर कार्य और कारण का संबंध ही नहीं होता। इसलिए कार्य अपने स्वाभाविक परिणमन से ही उत्पन्न होता है, किसी दूसरे कारण से नहीं । 1
2. शुद्ध द्रव्यार्थिक नय पर्याय को स्वीकार नहीं करते । अतः उनके अनुसार काल के भूत, भविष्य और वर्तमान — ये तीन विभाग नहीं होते, केवल वर्तमान काल ही होता है । तीनों शब्दनय पर्याय को स्वीकृति देते हैं, इसलिए वे काल के तीन विभाग मान्य करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्य का अपरिणामी अंश काल विभाग की अपेक्षा नहीं रखता । अर्थ - पर्याय क्षणवर्ती होता है, इसलिए उसे भी काल- विभाग की अपेक्षा नहीं होती । व्यंजन- पर्याय दीर्घकालीन होता है । अत: उसे काल विभाग की अपेक्षा होती है ।
3. द्रव्य में क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती — दोनों प्रकार के धर्म पाए जाते हैं । वह वर्तमान में विवक्षित स्वरूप से है, अन्य काल में उस स्वरूप से नहीं होता । उसमें जैसे काल-भेद से स्वरूप भेद होता है, वैसे ही साधन आदि से भी स्वरूप भेद होता है । इस आधार पर प्रकारान्तर से स्याद्वाद के सात भंग बनते हैं—
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1. कसायपाहुड, भाग 1 पृष्ठ 319 :
एदं णेगम -संगह- बवहार- उजुसुदाणं, तत्थ कज्जकारणभाव-संभवादो । तिन्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ, तत्थ कारणेण विणा कज्जुप्पत्तीए | अहवा ओदइएण भावेण कसाओ । एदं णेगमादिच उन्हं णयाणं । तिन्ह सद्दणयाणं पारिणामिण भावेण कसायो । कारणेण विणा कज्जुप्पत्ती दो ।
2. कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 260 :
अपहाणी कयपरिणामेसु सुद्धदव्वट्टिएस गएसु णादीदाणागयवट्टमाण काल विभागो अत्थि ।
3. कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 309 ( जयघवला में उद्धृत ) : कथञ्चित् केनचित् कश्चित् कुतश्चित् कस्यचित् क्वचित् । कदाचिच्चेति पर्यायात् स्याद्वादः सप्रभङ्गगभृत् ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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