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________________ दृष्टि से आम के सदृश ही थे । उनमें से कुछ ने वर्ण, गन्ध तथा रस की ओर खिंच उन्हें आम के फल समझ कर खा लिया। कुछ ‘सार्थवाह को पूछकर खायेंगे' सोच खड़े रहे । बोधिसत्व ने वहाँ पहुँच जो फल लिए खड़े थे उनसे वे फल फेंकवा, जिन्होंने खा लिए थे उन्हें वमन करा दवाई दी। उनमें कुछ तो नीरोग हो गए. लेकिन जो बहुत पहले खा चुके थे, वे मर गए। शास्ता ने यह कथा कह, अभिसम्बद्ध हो यह गाथा कही : आयति दोसमज्ञाय यो कामे पतिसेवति । विपाकन्ते हनन्ति नं किम्पक्कमिव भक्खितं ।। जातकअठ्ठकथा में स्पष्ट किया है कि विषवृक्ष आम के सदृश किम्पाकवृक्ष होता है। वह सदा फलता रहता है। वर्णादि से सम्पन्न होता है। इससे लोग इसके फल को निःशंक भाव से खा लेते हैं और फलस्वरूप मरण को प्राप्त होते हैं। इसी तरह काम-भोग नित्य नये रूप में फलते रहते हैं। वे रमणीय प्रतीत होते हैं । अतः लोग उनका निःशंक भाव से सेवन करते हैं। पर सेवन करने पर वे प्रमाद उत्पन्न करते हैं और मनुष्य को नरक में डाल देते हैं। जैसे किंपाकफल सदा अनर्थ कारक होता है वैसे ही कामभोग शीलादि का विनाश करने के कारण अनर्थकारी होते हैं । विषयों को किम्पाकफल की उपमा क्यों दी गई, इसका स्पष्टीकरण उपर्युक्त जैन एवं बौद्ध उल्लेखों से हो जाता है। किम्पाकफल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से मन को लुभाने वाले होते हैं वैसे ही विषय-भोग बाह्यतः वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से मनोहर होते हैं। किम्पाकफल खाने में सुस्वादु और मधुर होते हैं, वैसे ही विषय भोग-काल में मधुर लगते हैं । पचने पर खाये हुए किम्पाकफलों का परिणाम दारुण होता है । वे प्राणों का अन्त कर देते हैं। वैसे ही भोगे हुए भोगों का विपाक कटुक होता है। वे आत्मार्थ का हनन कर 1. जातक कथा 85 । मिलावें जातक कथा 54 । 2. Kuņālajā taka (W. B. Bellee) p. 37 lines 9-21 विषरुक्खो ति अम्बसदिसो किंपकरुक्खो । सो निच्चं फलति वण्णादिसम्पन्नो च होति; तेन तं निरासंका परिभुजित्वा मरन्ति । एवं एतापि रूपादि वसेन निच्चफलिता रमणीया विय खायन्ति, सेवियमाना पमादं उप्पादेत्वा अपायेसु पातेन्ति । यथा वा विसरुक्खो निच्चफलितो सदा अनत्थावहो एवं एतापि सीलादिविनासनवसेन... खं. ३ अं. २-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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