SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुझ जाने पर दिखलाई नहीं जा सकती उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त हो जाने के बाद व्यक्ति दिखलाया नहीं जा सकता । इसी प्रकार अश्वघोष ने सौन्दरनन्द काव्य में निर्वाण के विषय में लिखा है दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिगच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ तथा कृती निर्व. तिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ - सौन्दरनन्द 16128,29 जिस प्रकार बुझा हुआ दीपक न तो पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में और न किसी विदिशा में किन्तु तेल के नाश हो जाने से वह केवल शान्ति को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त व्यक्ति भी न पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में और न किसी विदिशा में किन्तु क्लेश के क्षय हो जाने पर वह शान्ति प्राप्त कर लेता है । बौद्धदर्शन में निर्वाण की यही सामान्य कल्पना है। निर्वाण शब्द का अर्थ है बुझ जाना। जिस प्रकार दीपक तब तक जलता रहता है जब तक उसमें तेल और बत्ती की सत्ता है, परन्तु तेल और बत्ती के समाप्त होते ही दीपक स्वतः शान्त हो जाता है, उसी प्रकार तृष्णा आदि क्लेशों का नाश हो जाने पर यह जीवन भी स्वतः शान्त हो जाता है । यही निर्वाण है । बौद्धों के दो विशेष सम्प्रदाय हैं --- हीनयान और महायान । हीनयान के अनुसार निर्वाण में क्लेशावरण का ही नाश होता है किन्तु महायान के अनुसार निर्वाण में ज्ञेयावरण का भी नाश हो जाता है । एक दुःखाभावरूप है तो दूसरा आनन्दरूप । उक्त प्रकार के निर्वाण की कल्पना सर्वथा असंगत है । इस प्रकार के निर्वाण में तो कुछ भी शेष नहीं रहता । निर्वाण तो वह है जिसमें आत्मा अपने अनन्त ज्ञानादि गुणों की अनुभूति में सदा लीन रहता है । न्याय वैशेषिक दर्शन न्यायदर्शन में दु:ख के अत्यन्त विमोक्ष को मोक्ष आत्यन्तिकी निवृत्ति निम्न प्रकार से होती है - तत्त्वज्ञान मिथ्याज्ञान का नाश हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में क्रमश: दोष, प्रवृत्ति, जन्म और दुःख का नाग होने पर अपवर्ग की प्राप्ति होती है । नैयायिक २४ 1. तदत्यन्त विमोक्षोऽपवर्ग: । न्यायसूत्र 111122 2. दु:ख - जन्म - प्रवृत्ति दोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । — न्यायसूत्र 1।1।23 तुलसी प्रज्ञा Jain Education International कहा गया है । दुःख की के उत्पन्न हो जाने पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy