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________________ में आग लगने पर अन्धा आदमी दौड़ता हुआ भी जल जाता है और लंगड़ा आदमी देखता हुआ भी जल जाता है । संयोग के अभाव में यह सब दुर्गति होती है। एक चक्र से रथ नहीं चल सकता है । अन्धा और लंगड़ा यदि परस्पर में मिल कर कार्य करें तो लंगड़ा अन्धे के कन्धे पर बैठ कर अन्धे को मार्गदर्शन करा सकता है और इस प्रकार वे दोनों आसानी से नगर में प्रविष्ट हो सकते हैं। मोक्ष की परोक्षता मोक्ष प्रत्यक्ष नहीं है, परोक्ष है । इसलिए कोई मोक्ष की सत्ता में शंका कर सकता है। किन्तु आगम तथा अनुमान प्रमाण से मोक्ष की सिद्धि होती है। इसीविषय में आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा हैं परोक्षमपि निर्वाण मागमात् संप्रतीयते । निर्बाधाद् भाविसूर्यादिग्रहणाकार भेदवत् ॥ शारीरमानसासातप्रवृत्तिविनिवर्तते । क्वचित् तत्कारणाभावाद् घटीयंत्रप्रवृत्तिवत् ।। जिस प्रकार आगे होने वाले सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि का ठीक ठीक ज्ञान ज्योतिष शास्त्र से हो जाता है कि इस दिन इतने बजे इतने अंश में अमुक देश में सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण होगा, उसी प्रकार सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आगम से निर्वाण का ज्ञान होता है। अनुमान प्रमाण से भी मोक्ष का ज्ञान होता है । जैसे धुरे के घूमने से घटीयंत्र घूमता है और उसमें जुते हुए बैल के घूमने पर धुरा घूमता है पर यदि बैल का घूमना रुक जाय तो धुरे का घूमना रुक जाता है और धुरा के रुक जाने पर घटीयंत्र का घूमना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार कर्मोदयरूपी बैल के चलने पर ही चारगतिरूपी धुरे का चक्र चलता है और चतुर्गतिरूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक आदि वेदनारूपी घटीयंत्र को घुमाता रहता है। कर्मोदय की निवृत्ति हो जाने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुक जाने पर संसार रूपी घटीयंत्र का चलना भी बन्द हो जाता है । क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है । इसी का नाम मोक्ष है। इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष तत्त्व का विचार करने के बाद अब अन्य भारतीय दर्शनों में मोक्ष तत्त्व की क्या व्यवस्था है इस पर विचार किया जाता है। बौद्ध दर्शन बौद्धदर्शन के अनुसार निर्वाण निरोघरूप है। तृष्णादिक क्लेशों का निरोध हो जाना ही निर्वाण है । भदन्त नागसेन ने मिलिन्दप्रश्न में बतलाया है कि निर्वाण के बाद व्यक्ति का सर्वथा अभाव हो जाता है । जिस प्रकार जलती हुई आग की लपट खं.३ अं. २-३ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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