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8. आचार्य जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने व्यवहार-नय एवं निश्चय-नय के आलोक में कार्य-कारण भाव का समालोचनात्मक विश्लेषण किया है। व्यवहार-नय के मत में जात पदार्थ का पुनर्जन्म स्वीकृत नहीं है। यह मत निम्नोद्ध त गाथाओं (414-416) में अंकित किया गया है
ववहारमयं जायं न जायए भावो कयधडोव्व । अह चे कयंपि कज्जइ कज्जउ निच्चं न य समत्ती ॥ 414 ।। किरियावेफल्लं चिय पुव्वमभूयं च दीसए होतं । दीसइ दीहो य जो किरियाकालो घडाईण। 415 ।। नारंभे च्चिय दीसइ न सिवादद्धाए दीसइ तदंते । (इय न सवणाइकाले नाण जुत्तं तदंतम्मि )।। 416 ।।
इसका सारार्थ इस प्रकार है
(414) व्यवहार नय, जो असत्कार्यवादी है, का यह सिद्धांत है कि जो वस्तु पहले से ही उत्पन्न है उसकी फिर से उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वह पहले से ही विद्यमान है जैसे कि किया हुआ घट और यदि किये हुए को भी किया जाय तो हम चिरकाल तक करते ही रहेंगे और कार्य की समाप्ति कभी नहीं होगी, तथा (415) साथ साथ क्रिया भी व्यर्थ हो जायेगी। पहले से अविद्यमान वस्तु को ही हम होते हुए देखते हैं, और यह भी देखते हैं कि घटादि का क्रियाकाल लम्बा होता है ।(416) कुम्भकार जब मिट्टी का गोला बनाकर उसे शिवक (लम्बा आकार), स्थासक (गोल आकार), कोष तथा कुशूल का आकार प्रदान करता है तो प्रारंभ में तथा उन अवस्थानों में भी घट दिखाई नहीं देता है । वह केवल अन्त में ही दिखता है।
उपर्युक्त मत के विरोध में निश्चय-मतावलम्बी दार्शनिक कहता है कि अजातवस्तु का जन्म कभी सम्भव नहीं है। अपने सिद्धान्त के पक्ष में उसकी युक्तियों को विशेषावश्यक-भाष्य में इस प्रकार रखा गया है (गाथा 417-423)
नेच्छइयो नाजायं जायअभावत्तमो खपुप्फ व । अह च अजायं जाय इ जायउ तो खरविसाणंपि ।। 417 ।। निच्च किरियाइदोसा नणु तुल्ला असइ कट्ठतरगा वा। पुवमभूयं च न ते दीसइ किं खरविसाणंपि ॥ 418 ॥ पइसमउप्पण्णाणं परोप्परविलक्खणाण सुबहूणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसइ किं त्थ कुंभस्स ॥ 419 ॥ अण्णारंभे अण्णं कह दीसइ जह धडो पडारंभे । सिवकादो न धडप्रो किह दीसइ सो तदद्धाए ॥ 420 ॥
बं.३ अं. २-३
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