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________________ अर्थात्, जायमान की उत्पत्ति नहीं होती, कारण, जायमान स्वयं आंशिक रूप से जात है ही। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो जगत् के सारे (जात) पदार्थ जायमान गिने जायेंगे। अब विरोधी पक्ष क्रिया को प्रत्ययवती नहीं मानकर उसे अप्रत्ययवती मानना चाहता है। (4 b) इस पर नागार्जुन का कहना है कि प्रत्ययवती क्रिया ही जब कार्य की साधिका नहीं बन सकी तो अप्रत्ययवती क्रिया, जो निर्हेतुका है, से कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? ___इस पर विरोधी पक्ष कहता है कि यदि क्रिया कार्य की साधिका नहीं है तो हम फिर से प्रत्ययों का पक्ष ही ग्रहण करेंगे। क्रियारहित प्रत्यय ही कार्य के जनक होंगे। (4 c) इस पर नागार्जुन कहते हैं कि क्रियारहित प्रत्यय कार्य के जनक कैसे हो सकते हैं ? जैसे प्रत्ययहीन क्रिया कार्य के उत्पादन में असमर्थ है, उसी प्रकार क्रियारहित प्रत्यय भी कार्य के उत्पादन में असमर्थ है। इसके उत्तर में फिर से विरोधी पक्ष यह मानते हैं कि क्रियावान् प्रत्यय ही कार्य के जनक हैं। (4 d) इस पर नागार्जुन का कहना है कि प्रत्यय तो क्रियावान् हो ही नहीं सकते। आपने भी प्रत्ययों को क्रियारहित स्वीकार कर लिया है। नागार्जुन का उपयुक्त विवेचन कार्य-कारणवाद के प्रश्न पर एक नया प्रकाश डालता है। यद्यपि उनके समक्ष विरोधी पक्ष के रूप में बौद्ध दार्शनिकों का ही सम्प्रदाय विशेष था, तथापि कारणतावाद तो एक सार्वजनिक प्रश्न था, जिस पर विचार बिना किये कोई दर्शन आगे नहीं बढ़ सकता था। भगवतीसूत्र में जिस प्रश्न का विवेचन हम संक्षेप में देखते हैं वही प्रश्न नागार्जुन के समय में एक विशिष्ट तार्किक रूप धारण करता है । अब हम देखेंगे कि नागार्जुन के परवर्ती जैन दार्शनिक इस प्रश्न पर क्या कहते हैं। 7. उपर्युक्त प्रश्न का विवेचन जैन आचार्य जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने अपने स्वोपज्ञ वृत्ति सहित विशेषावश्यकभाष्य में किया है। उनके टीकाकार कोट्याचार्य (7 th cent.A.D.) एवं मलधारी हेमचन्द्र (c.A.D. 1050-1120) ने भी अपनी व्याख्याओं में इस प्रश्न पर विचार प्रस्तुत किये हैं। नवांगी-टीकाकार अभयदेवसूरि ने अपनी भगवती टीका में इस प्रश्न पर जो विवेचन किया है वह भी मननीय है । दिगम्बर शास्त्रों में भट्ट अकलंक देव के तत्त्वार्थवार्तिक एवं वीरसेन विरचित जयधवला (भाग 1, पृ० 223-4) जो प्रस्तुत विषय में राजवात्तिक पर आधारित है, में भी इस विषय का विवेचन उपलब्ध है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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