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लेखक के सुदीर्घ शास्त्राभ्यास, तलस्पर्शी चिन्तन एवं पक्षपातरहित विवेचन के परिपक्व फल का आस्वाद हमें इस निबंध में मिलता है।
मेरा यह विश्वास है कि यह निबंध भारतीय न्यायशास्त्र, विशेषतया जैन तर्क-शास्त्र, के क्रमिक विकास संबंधी अध्ययन के क्षेत्र में एक विशिष्ट उपलब्धि के रूप में अवश्य स्वीकृत होगा।
-डॉ नथमल टाटिया
ठाणं वाचना-प्रमुख-आचार्य श्री तुलसी संशोधक-मुनि श्री नथमल प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लाडनूं मूल्य-125-00
भारतीय दर्शन का सहित्य दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-स्वत:प्रमाण तथा परत:-प्रमाण । दिगम्बर संप्रदाय को छोड़कर जैनों के सभी संप्रदाय उपलब्ध अंग साहित्य को स्वतः प्रमाण मानते हैं। इस दृष्टि से अंग साहित्य का स्थान सर्वोपरि है। किन्तु इस अंग साहित्य के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ हैं। प्रथम कठिनाई प्रामाणिक मूल पाठ निर्धारित करने की है। अंगों के मूलपाठ निर्धारित करने की कठिनाई आज से एक हजार वर्ष पूर्व के नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि के सम्मुख भी थी। मूलपाठ निश्चित किए बिना जैन आगमों का अनुसंधान वैज्ञानिक पद्धति से आगे नहीं बढ़ सकता । आचार्य श्री तुलसी, मुनिश्री नथमल एवं तेरापंथ संघ के अन्य साधु-साध्वियों ने मनोयोगपूर्वक अंग साहित्य के मूलपाठ का प्रामाणिक संपादन करके इस आवश्यकता की पूर्ति की है। भगवान महावीर की 25वीं निर्वाण शताब्दी पर जैन-विश्व-भारती, लाडनूं (राजस्थान) ने अंगसुत्ताणि भाग 1, 2, 3 प्रकाशित कर ग्यारह अंगों को विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया हैं।
'किन्तु मूल प्राकृत पाठ विशिष्ट विद्वज्जन-भोग्य ही है, क्योंकि मूल प्राकृत से बिना किसी सहायता के अर्थावबोध की क्षमता बहुत कम लोगों में है। इसके अतिरिक्त जैन आगमों में ऐसे अंश हैं जो बिना व्याख्या किए अनुवाद मात्र से समझ में नहीं आ सकते हैं । इन बातों को ध्यान में रखकर मूल पाठ के साथ संस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पणी देते हुए आगमों का प्रकाशन जैन-विश्व-भारती, लाडनूं की ओर से प्रारंभ किया गया है । इसके अन्तर्गत तृतीय अंग ठाणं' का प्रकाशन 1976 में किया गया । ठाणं जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीनतम विश्वकोष है जिसमें विषयों
खं.३ अं. २-३
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