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________________ इस भूमिका को ध्यान में रखकर ही लेखक ने जैन न्याय के विकास का मूल्यांकन किया है। लेखक ने जैन न्याय के तीन युग निर्धारित किये हैं-1. आगमयुग, 2. दर्शन युग, तथा 3. प्रमाण-व्यवस्था युग । ईसा की पहली शती तक मागम युग, आठवीं शती तक दर्शन युग, तथा तदनन्तर प्रमाण-व्यवस्था युग माने गये हैं । आगम युग के न्याय में ज्ञान और दर्शन की विशद चर्चा प्राप्त है । ईसा की दूसरी शताब्दी से दर्शन के क्षेत्र में न्याय-शास्त्र का विकास हुआ। इस युग में न्याय-शास्त्र का दर्शन-शास्त्र के साथ गठबन्धन हो गया। न्याय-शास्त्र के विकास में बौद्धों और नैयायिकों ने पहल की। उनके पारस्परिक खण्डन-मण्डन ने न्याय-शास्त्र के नये युग का सूत्रपात किया। आगम और हेतु का समन्वय इस युग के जैन न्याय की एक विशेष उपलब्धि है। दूसरी उपलब्धि हैज्ञान का प्रमाण के रूप में प्रस्तुतीकरण। सिद्धसेन दिवाकर का न्यायावतार जैन परंपरा में न्याय-शास्त्र का पहला ग्रन्थ है। जैन चिन्तकों ने तर्क बल द्वारा दूसरों के सिद्धान्तों का निरसन शुरू किया, पर अहिंसा की सुरक्षा और सत्य की सम्पुष्टि के लिए उस निरसन को समन्वय से जोड़ दिया। इस प्रसंग में निब-ध के 'अनेकान्त व्यवस्था के सूत्र' एवं 'नयवाद' के प्रकरण विशेष रूप से मननीय हैं, जो चिन्तनार्थ प्रचुर नई सामग्री उपस्थित करते हैं। 'स्याद्वाद और सप्तभंगी' प्रकरण तो लेखक की अमूल्य देन है, जिसमें से 'स्याद्वाद के फलित' अंश को हमने पाठकों की जानकारी के लिए इस अ'क में उद्धृत भी किया है। प्राचार्य अकलंक ने जन प्रमाण व्यवस्था को परिष्कृत किया और उसमें नई दिशाओं का निरूपण किया। उन्हें जैन प्रमाण व्यवस्था युग का प्रवर्तक माना जा सकता है । लेखक ने इस युग के क्रमिक विकास पर प्रभूत प्रकाश डाला है, जो उनकी एक मौलिक देन है । अष्टम प्रकरण में अविनाभाव तत्व पर भी उन्होंने जो ऊहापोह किया है वह प्रशंसनीय है। निबंध के नवम प्रकरण में भारतीय प्रमाण-शास्त्र को जैन परम्परा के योगदान का विश्लेषण करते हुए दर्शन और प्रमाण-शास्त्र की नई संभावनाओं का निरूपण भी किया गया है। दार्शनिक का केवल तर्क शास्त्री होना पर्याप्त नहीं है। उसे साधक भी होना होगा। दर्शनों के मूल में साधना रही है। अत: दर्शन के विकास में भी उस साधना का सतत अक्षुण्ण रहना आवश्यक है। आलोच्य निबन्ध की उपलब्धियों का संक्षिप्त विवरण हमने प्रस्तुत किया है। १४२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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