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को चालाकीपूर्ण सम्बन्धों से स्वार्थपूर्ति का माध्यम न मानकर उसे प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति के प्रगट होने का माध्यम मानता है । वह उस शक्ति स्रोत से शक्ति प्राप्त करता है और उसमें अपनी शक्ति की आहुति देता है । इस रूप में प्रगट होने वाली एकात्मकता व्यक्ति को समूह के प्रति निर्दोष बना देती है। आदमी में धन संग्रह की मूर्छा होती है। उसके कारण वह अनेक असामाजिक कार्य करता है-शोषण, मिलावट, ठगी, कूटतौलमाप, आदि-आदि । कानून के होने पर भी ये असामाजिक कार्य नहीं रुकते हैं। इसका कारण किसी गहराई में नहीं है । मूर्छा कानून की मर्यादा को अस्वीकार कर देती है। मूर्छावान् व्यक्ति कानून के सामने आवरण डाल कर छिपे-छिपे वह सब कर लेता है, जिसे कानून निषिद्ध करता है।
साधक ऐसा नहीं कर पाता । साधना के पहले चरण में मूभिंग का अभ्यास करना होता है । उसके सघने पर अपने हित को प्राथमिकता देने की स्थिति समाप्त हो जाती है। उसमें हितों के सामंजस्य या समीकरण की स्थिति निष्पन्न हो जाती है। इस संदर्भ में मैं साधना को उपयोगी मानता हूं, गृहस्थ के लिए। और मुनि या सन्यासी के लिए तो वह आवश्यक हैं ही। इस संदर्भ में मैं साधना का अर्थ करता ई-चित्त की निर्मलता का वह प्रतिबिंब जो हमारे व्यवहार में पड़ता है, चित्त के तेजस् की वह रश्मि जो हमारे अन्त:करण को आलोक से भर देती है।
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तुलसी प्रज्ञा
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