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चोर घुस जाते हैं । वह जाग जाता है, चोर भाग जाते हैं। मालिक की जागरूकता चोरों को घर से बाहर निकाल देती हैं । ठीक यही बात संस्कारों के लिए है। हम अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं होते, तब संस्कार सुखपूर्वक उसमें डेरा डाले बैठे रहते हैं । जैसे ही हम उसके प्रति जागरूक होते हैं, वैसे ही उनका आसन डोल उठता है। जैसे-जैसे एकाग्रता का दबाव उन पर बढ़ता है वैसे वे स्थानच्युत होकर बाहर निकलने का प्रयत्न करते हैं । ध्यान करने वाला समझता है यह बहुत बुरा हो रहा है । पर वास्तव में वह बहुत अच्छा है। जो बीमारी अंदर घुसी हुई है वह बाहर आये बिना नष्ट कैसे होगी ? दवा की प्रतिक्रिया होती है तब कभीकभी बीमारी उग्र रूप ले लेती है । वह उग्रता उसकी समाप्ति की ही प्रक्रिया है। ध्यान करने वाला यदि धृति से विचलित नहीं होता है तो वे उखड़े हुए संस्कार बाहर आते-आते एक दिन शांत हो जाते हैं। उनके शांत होते ही मन भी शांत हो जाता है । ध्यानकाल में शत्रु ता, ईर्ष्या, वासना आदि के संस्कार कभी-कभी बहुत प्रबल हो उठते हैं और ध्याता का मन ग्लानि से भर जाता है और साधक यदि दुर्बल धृति वाला होता है तो वह ध्यान से विरत हो जाता है । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर योगाचार्य ने लिखा है-साधना का मार्ग असिधारा पर चलने के समान है। धृतिसपन्न साधक साधना में प्राप्त होने वाली कठिनाइयों से घबराता नहीं, वह उतार चढ़ाव को संस्कार चिकित्सा की अनिवार्य प्रक्रिया मान उन्हें सहन कर लेता है । इस सहिष्णुता के बल पर वह चलते-चलते एक दिन बीहड़ जंगल के पार पहुँच जाता है । विचार के रूप में बाहर निकलते-निकलते संस्कार एक दिन क्षीणबल हो जाते हैं। ध्यान के कारण नए संस्कार फिर संचित नहीं होते । इस प्रकार वह विचारातीत भूमिका पर चला जाता है।
संस्कार-विलय की भूमिका में मैत्री, प्रमोद, करुणा और तटस्थता के संस्कार उदित होते हैं । ये भी संस्कार हैं । एक दिन इन्हें भी छोड़ना होगा। किंतु प्रारंभ में इनका उपयोग है । ये जलपोत के समान हैं, जो समुद्र के तट पर पहुंचा देते हैं । तट आने पर यात्री जलपोत छोड़ देते हैं । मंत्री ग्रादि के संस्कार हमारे मन को निर्मल और प्रसन्न बना देते हैं। निर्मल और प्रसन्न मन एक ओर आध्यात्मिक गहराइयों में पहुंचने में हमारी सहायता करता है। तथा दूसरी ओर सामुदायिक व्यवहार को स्वस्थ और सुखद बनाता है । मुझे उस साधक या साधना में विश्वास नहीं है, जिसके व्यवहार में मैत्री, करुणा आदि का प्रतिबिंब न हो। शत्रुता आदि के संस्कार और ध्यान आदि की साधनायें दोनों एक साथ चल ही नहीं सकते । दोनों में से एक को मिटाना ही होगा-शत्रता के संस्कार या ध्यान को । मैं ध्यान को इसलिए महत्त्व देता हूं कि वह योगविद्या का एक प्रमुख अंग है । योगविद्या का महत्व अपने आप में है । उससे हमारे शरीर, इन्द्रिय, मन और अन्तःकरण (अधिसंज्ञान) ये सभी निर्मल और स्वस्थ होते हैं । व्यक्ति की स्वस्थता समाज में संक्रान्त होती है । सामाजिक स्वास्थ्य का सर्वाधिक मौलिक उपादान है व्यक्ति का स्वस्थ होना । स्वस्थ व्यक्ति का समाज के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है । वह समाज
खं. ३ अं. २-३
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