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साधना का अर्थ
साधना का अपना कोई अर्थ नहीं है । जहां साध्य और साधन समन्धित होते हैं वहां साधना प्रस्फुटित हो जाती है और जहां साधना प्रस्फुटित होती है। वहां साध्य और सिद्धि की दूरी कम हो जाती है । साधन, साधना और सिद्धि के अन्तराल में केन्द्रीय तत्त्व साध्य ही है, इसलिए वही विशेष अर्थवान् होता है।
प्राचार्य श्री तुलसी
प्रश्न है - मनुष्य के जीवन का साध्य क्या है ? इसका उत्तर मैं कैसे दूं ? मैं मनुष्य हूं, इसलिए मेरा साध्य क्या है, इस सीमा में इसका उत्तर दे सकता हूं, किन्तु सब मनुष्यों का साध्य क्या है, इसका उत्तर देना मेरे लिए कैसे सम्भव हो सकता है ? और मैं सोचता हूं कि किसी के लिए भी कैसे संभव हो सकता है ? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के साध्य की सीमा का निर्धारण कैसे कर सकता है ?
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इस चिंतन का एक दूसरा कारण भी है। उससे देखता हूं तब मानवीय एकता की रेखा उभर आती | मनुष्यों में अभिव्यक्ति की तरतमता भले हो, उनमें सत्ता की तरतमता नहीं हैं । एक मनुष्य में जिस प्रकार की चेतनसत्ता है, उसी प्रकार की चेतनसत्ता दूसरे में है। आंतरिक सत्ता एक जैसी है तब साध्य दो कैसे हो सकते हैं ? मनुष्य विकास की तरतमता के कारण साध्यभेद की कल्पना कर सकता है । पर उनके भीतर रही हुई चेतनसत्ता के साध्य भिन्न-भिन्न नहीं हैं । उस सबका एक ही साध्य है । वह है बन्धन- मुक्ति, स्वतन्त्रता की प्रस्थापना ।
तुलसी प्रज्ञा
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