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कितना ही लंबा समय लगे। निर्ग्रन्थ प्रवचन के पंचम अंग भगवती सूत्र के प्रारम्भ में ही एक प्रसंग पाया है जिसमें बन्धे हुए कर्मों के उदय से लेकर निर्जरा तक की क्रियाओं को नौ पदयुगलों द्वारा समझाया गया है, तथा यह स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि क्रियमाण और कृत के बीच कोई विरोध नहीं है । ये नौ पदयुगल क्रमशः निम्न प्रकार हैं-- चलत्-चलितम् उदीयमाणम्-उदीरितम्, वेद्यमानंवेदितम्, प्रहीयमाणं-प्रहीणम्, छिद्यमानं-छिन्नम्, भिद्यमान-भिन्नम्, दह यमानं-दग्धम्, नियमाणं-मृतम् एवं निर्जीर्यमाणं-निर्जीर्णम् । इन नौ पदयुगलों में पूर्व-पूर्व पद क्रिया के द्योतक हैं, जबकि उत्तर-उत्तर पद क्रिया निष्पत्ति के द्योतक हैं। क्रिया-प्रारंभ के प्रथम क्षण से ही क्रिया-निष्पत्ति का प्रारम्भ हो जाता है। अन्यथा क्रिया-निष्पत्ति कभी सम्भव नहीं होगी। टीकाकार अभयदेवसूरि (c. A. D. 1015-1078) ने विस्तार से इस तथ्य पर विवेचन प्रस्तुत किया है जिसका निरूपण हम उनसे पूर्ववर्ती आचार्य जिनभद्र (c. A. D. 489-593), भट्ट अकलंकदेव (c. A. D. 620680) एवं वीरसेन (c. A. D. 743-823) के विचारों के माध्यम से करेंगे । इसके पहले हम बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के विचारों को प्रस्तुत करेंगे जो इस विषय पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । निर्ग्रन्थ विचारधारा में उपयुक्त मत के विरुद्ध जो विचारधारा प्रस्तुत की गयी उसका उद्गम भगवान् महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति के अनन्तर 14 वें वर्ष में उनके पथभ्रान्त शिष्य जमालि द्वारा किया गया। अब हम नागार्जुन के एतद्विषयक मन्तव्य का निरूपण करेंगे।
6. कार्यकारण भाव के खण्डनार्थ नागार्जुन (c. A. D. 150) ने जो विवेचन प्रस्तुत किया है वह निम्नोक्त प्रकार है
न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः । उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन ।।1।। चत्वारः प्रत्यया हेतुश्चालम्बनमनन्तरम् । तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पंचमः ॥2।। नहि स्वभावो भावानां प्रत्ययादिषु विद्यते । अविद्यमाने स्वभावे परभावो न विद्यते ॥3॥ क्रिया न प्रत्ययवती नाप्रत्ययवती क्रिया । प्रत्यया नाक्रियावन्त: क्रियावन्तश्च संत्युत ।।4।।
-मूलमध्यमककारिका, I.1-4
उपर्युक्त श्लोकों का सारार्थ निम्न प्रकार है
(1) कोई भी पदार्थ (कार्य) न अपने से, न पर से, न दोनों से, न बिना हेतू उत्पन्न होता है।
तुलसी प्रज्ञा
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