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________________ कारण भाव की व्यवस्था केवल धर्मों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित मानी गयी है। बौद्ध दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में उक्त प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द के विभिन्न अर्थ किये जाते हैं। माध्यमिक बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द को शून्यता का पर्याय माना गया है । वैभाषिक, योगाचार एवं सौत्रान्तिकों के प्रतीत्यसमुत्पादों में भी मौलिक विभिन्नता है। ___3. जैन दार्शनिकों का कार्य-कारणवाद इन सभी वादों से कुछ भिन्न है। कार्य के दो प्रकार हैं-(1) उपादान रूप द्रव्य के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उत्पन्न कार्यरूप पर्याय, तथा (2) उसी उपादान द्रव्य में अन्य सामग्री से उत्पन्न कार्य रूप पर्याय । पहले पर्याय को 'स्वकृत' (स्वभाव) तथा दूसरे पर्याय को 'परकृत' (परभाव) की संज्ञा दी जा सकती है। प्रत्येक द्रव्य में प्रतिक्षण अनन्त पर्याय उत्पन्न होते रहते हैं, जिनमें कुछ स्वकृत एवं कुछ परकृत होते हैं। यदि इन पर्याय-समूहों को एक अखण्ड कार्य माना जाय तो जैन दर्शन के कार्य-कारणवाद को हम सदसत्कार्यवाद की संज्ञा दे सकते हैं । 4. जैन दार्शनिकों के मतानुसार उपर्युक्त सभी वाद किसी एक विशिष्ट दृष्टि पर आधारित हैं। जिस चिंतक ने प्रारम्भ से ही यह मान लिया है कि सारा विश्व किसी एक अखण्ड तत्त्व, भले ही उसमें परस्पर विरोधी विभिन्न गुणों का समावेश हो, से उत्पन्न हुआ है, उसके लिए सत्कार्यवाद स्वीकार करना अनिवार्य है। इसके विपरीत यदि कोई चिंतक इस विश्व का उद्गम विभिन्न मौलिक तत्त्वों के आधार पर समझने की कोशिश करे तथा यह भी मानले कि नवीनता संसार का धर्म है तो असत्कार्यवाद को वह अवश्य स्वीकृत करेगा। किसी प्रकार के उपादान द्रव्य को बिना माने विश्व व्यवस्था को समझने के फलस्वरूप जो कार्य-कारणवाद हमारे सामने अनिवार्य रूप से उपस्थित होगा वह प्रतीत्यसमुत्पाद वाद का ही कोई न कोई प्रकार होगा । ऐसे एकान्तवादी दृष्टियों के आधार पर जो भी दर्शन उत्पन्न हुए हैं, उन्हें जैन दार्शनिक अस्वीकार करता है, क्योंकि वे सभी एकांशदर्शी हैं। इन सभी वादों की उपमा जात्यंधों द्वारा हस्तिदर्शन से जैन दार्शनिक देते हैं । सदैव उनका यह प्रयत्न रहा है कि विभिन्न दृष्टियों के औचित्य एवं अनौचित्य को ध्यान में रख कर ही दर्शन का निर्माण किया जाय । इसी कारण जैन दर्शन अनेकान्त दर्शन भी कहलाता है। 5. उपर्युक्त विभिन्न कारणवादों के प्रसंग में एक विशेष प्रश्न पर हमें इस लेख में विवेचन करना है। वह है कारण को कार्य से संयुक्त करने वाली क्रिया। यह सर्वमान्य तथ्य है कि संकल्प-घट एवं व्यवहार-घट में काल का व्यवधान है। कुम्भकार जिस क्षण घट निर्माण का संकल्प लेता है उसी क्षण से घट निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भ हो जाता है। जिस क्षण कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बनता है एवं उस दिशा में संवर ग्रहण रूपी कदम उठाता है, उसी क्षण से वह निर्वाण का अनुभव करने लगता है, भले ही पूर्ण निर्वाण तक पहुंचने में उसे खं. ३ अं. २-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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