________________
राजस्थानी साहित्य क्षेत्र मेंआचार्यश्री तुलसी का योगदान
मुनि मधुकर
वे मेरे बचपन के दिन थे। उस समय साहित्य के मर्म को पहचानना मेरी बुद्धि-सीमा से परे था। बहुत से शब्दों का तो मैं अर्थ भी नहीं समझता था फिर भी ब्रह्म मुहूर्त के सुहावने समय में अपने अग्रज के सुरीले कण्ठों से निःसृत संगीतमय पद्यों को सुनकर मैं झूम उठता था और उनके साथ - साथ तन्मय होकर संगीत-सरिता में डुबकियां लेने लगता था। उन पद्यों का शब्द चयन ही कुछ इस ढंग का था कि वे अनायास ही मुझे कंठस्थ से हो गये थे और उन्हें अब भी अपनी स्मृति में संजोये
गुण गंभीर धीर धरणी सम, निर्मल गंग
- समीर । भंजन भीर वीर सम करणी, तरुणी
तारण तीर ।। अमृत झरणी शिव-निःसरणी, करणी
करण सप्रेम। वाणी भ्रम-हरणी तसु महिमा, वरणी
जावे केम ॥"
ये पद्य तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगरिण के स्वर्गारोहण के प्रसंग पर उनकी पुण्य स्मृति में लिखी गई एक ढाळ 'भजिये निशदिन कालूगरिंणद' के हैं ।..."बस इन्हीं पद्यों के माध्यम से आचार्यश्री तुलसी के साहित्य से मेरा परिचय प्रारम्भ होता है।
"भाद्रव शुक्ल तीज दिन मुझने भिक्षुगण
सिरताज । बिन्दु नो सिंधु कर थाप्यो आप्यो पद
युवराज ॥
संयोग की बात है विक्रम संवत् २००० में आचार्यश्री का पावन-प्रवास
तुलसी प्रज्ञा-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org