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निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । ताते विनय कर सब पाहीं || करन चहउं रघुपति गुनगाहा । लघुति मोरि चरित अवगाहा || सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥ मति अति नीच ऊंचि रुचि आछो । चहि अभि जग जुरइ न छाछी ॥ छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनि हहिं बालवचन मन लाई || जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता || हंसहि कुर कुटिल कुविचारी । जे पर दूषन भूषन धारी ॥
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भाव भेद रस भेद अपारा । कवित दोष गुन विविध प्रकारा || कवित विवेक एक नहि मोरे । सत्य कहउ लिखि कागद कोरे ||
'भविसयत्त कहा' की निम्न पंक्तियों में भी बड़ी समानता हैसुणिमित्रई जाअई तासु ताम | गय पथहित्ति उड्डेवि साम || वागि सुत्ति सहसहइ वाउ । प्रिय मेलखइ कुलकुलइ काउ ।। वामउ किलकिंचित लावएण । दाहिणउ अंग्र दरिसिउ मएण || दाहिण लोयर फंदइ सवाहु | रणं भणइ एण मग्गेण जाहु ||
तुलसी ने भी इसी भाव की सम्पु ष्टि की है
दाहिन का सुखेत सुहावा । नकुल दरस सब काहुन पावा ।।
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सानुकूल वह त्रिविध बयारी । सघट सबाल भाव नर नारी ॥ लोवा फिर-फिरि दरस दिखावा । सुरभी सन्मुख शिशुहि पिआवा ॥ मृगमाला दाहिन दिशि आई । मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई || निष्कर्ष सूत्र :
'पउम चरिउ' जैन संस्कृति से ओतप्रोत राम-काव्य है । उसने 'मानस' को यत्र-तत्र प्रभावित किया है। स्वयंभू ओज के कवि थे । उनकी सबसे बड़ी देन सीता का चरित्र चित्रण है। तुलसी ने समूचे भारतीय मानस को प्रभावित किया है । वे अपने कृतित्व तथा साहित्य-स्रोतों
के विषय में बड़े ईमानदार थे। हिन्दी का युग आते-आते उनका कोई नामलेवा नहीं रह गया था । किसी ने उनका स्तवन नहीं किया । इसका कारण था कि हिन्दी में आभार प्रदर्शन की परिपाटी समाप्त हो गयी थी। इसके एकमेव अपवाद महाकवि गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने अपने पूर्व प्रमुख कवियों का तर्पण किया है । अन्य किसी कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण नहीं किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में राम-काव्य के गायकों तथा पुरस्कर्त्ताओं का सादर नामोल्लेख किया है ।
'पउम चरिउ' और रामचरितमानस' भारतीय साहित्य की दो अनूठी, अप्रतिम तथा प्रौढ़ उपलब्धियां हैं जिन्होंने रामकथा तथा राम-काव्य को युगांतर प्रदान किया है ।
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तुलमी प्रज्ञा- ३
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