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________________ स्वयंभू की कौशल्या 'अपराजिता' है। उसमें सिर्फ पुत्र प्रेम है । तुलसी के मातृत्व तथा मार्मिकता का उसमें अभाव है। तुलसी की कैकयी स्वयंभू की कैकयी से अधिक प्राणवान् है। 'पउम चरिउ' में सुमित्रा सामान्य नारी है। स्वयभू की उपरंभा की अतीव कामासक्ति को तुलसी का मर्यादावादी कवि कभी स्वीकार नहीं करता। नारी के विषय में दोनों महाकवियों के समान विचार हैंअहो साहसु पभण्इ पहु मुयवि । जं महिल करइतं पुरिस णवि । दुम्महिल जि भीसण जण-णयदि । दुम्महिल जि असणि जगंत-यरि ।। (स्वयंभू) काह न पावक जारि सके, का न समुद्र समाइ । का न करै अवला प्रबल, केहि जग कालु न खाइ । स्वयंभू का नारी-चित्रण स्थूल, परिपाटीगत तथा औपचारिक है। उसमें तुलसी की सी कलात्मकता तथा मनोवैज्ञानिकता नहीं है । तुलसी का रावण संयत है परन्तु स्वयंभू का रावण सीता के प्रति अपनी कामुकतापूर्ण मनोवृत्ति तथा चेष्टाओं का प्रदर्शन करता दिखायी देता है । वह चोर की भांति सीता का सौन्दर्य निहारता है और उससे श्रीराम को प्राप्त होने वाले भौतिक प्रानन्द की कल्पना में डूबकर ईर्ष्यालु हो जाता है। विराग प्रधान होने के कारण स्त्री-रति की बुराई से जैन धर्म भरा पड़ा है। स्वयंभू ने नारी के सौन्दर्य की नश्वरता का रूप बारम्बार उद्घाटित किया है । चरितकाव्य-सूत्र : 'पउम चरिउ' और 'मानस' दोनों चरितकाव्य हैं। दोनों को पौराणिक शैल के महाकाव्यों की श्रेणी में स्थान दिया गया है। स्वयंभू ने अपने नायक श्रीराम में मनुष्यत्व अधिक देखा है और इस दृष्टि में वे आधुनिक काल के माइकेल मधुसूदन दत्त के अधिक निकट दिखलायी देते हैं । इसके विपरीत तुलसी के राम परब्रह्म परमेश्वर हैं। स्वयंभू का कवि हृदय रावण में जितना रमा है, उतना राम में नहीं। स्वयंभू सीता का रूप-सौन्दर्य इस प्रकार नख-शिख के रूप में उपस्थित करते हैंसुकइ-कह-व्व सु-सुन्धि-सुसन्धिय । सु-पय सु-वयण सु सद्द सु-वद्धिय ।। थिर-कलहंस गमण गइ मंथर । किस मज्झारे रिणयम्बे स-वित्यर ।। रोमावलि मयरहरुत्तिण्णी। रां पिम्पिलि रिछोलि विलिण्णी ।। अहिणव-हुँड, पिंड-पील-त्थरण । णं मयगल उर-खंभ णिसुभरण ।। रेहइ वयण-कमलु अकलंक उ । णं माणस-सरे वियसिउ पंकउ ।। सु-ललिय-लोलण ललिण-पसण्णह । णं वरइत्त मिलिय वर-कण्णहं ।। घोलइ मुद्विहिं वेणि महाइणि । चंदन-तयहिं ललइ णं णा इणि । सीता के. स्तनों का वर्णन करने वाले स्वयंभू तुलसी की मर्यादाशीलता तथा सीता के जगज्जननी रूप के समक्ष ठहर नहीं पाते हैं। तुलसी का सौन्दर्यवर्णन आंतरिक तथा सात्विक है - सुन्दरता कहुं सुन्दर करई। छविगृह दीपसिखा जनु बरई । सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं विदेह कुमारी। तुलसी प्रज्ञा-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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