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________________ इस धारणा के साथ शुरू हुआ होगा कि विष्णु ही महाविभूति | साधुओं और श्रावकों को सर्वाधिक श्रद्धा का पात्र इसी (विश्व का पालन करनेवाली सर्वव्यापक शक्ति) अनन्त | दृष्टि से माना जाता है। कुछ विद्वानों का तो यह मानना हैं, अन्तर्यामी हैं और व्यापक हैं। वे नित्य विभूति हैं, | है कि उपवास की अवधारणा जो सनातनी परम्पराओं राम, कृष्ण आदि उन्हीं की लीला हैं, विभूति हैं। आचार | में भी व्याप्त हो गयी है, श्रमण संस्कृति का प्रभाव है की मर्यादा को नियन्त्रित करनेवाले प्राचीन वैष्णव सम्प्रदाय | अन्यथा वैदिक संस्कृति में व्रत तो था, उपवास नहीं। में (जो वासुदेव सम्प्रदाय से अलग था) विष्णु के इस | जो भी हो, उपवास से सम्बन्धित आचारों का प्रमुख केन्द्र अनन्त रूप को समस्त वैष्णवों के लिए वन्दनीय माना | भाद्रपद मास ही जैनधर्म के दोनों आम्नायों (श्वेताम्बर गया। वैष्णवों की यह धारणा है कि इन चार माहों में | और दिगम्बर) में माना जाता है। इस मास में अधिक विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर शयन करते | से अधिक आत्मसंयम का तथा उपवास रख धार्मिक हैं और भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को करवट लेते हैं, जिस दिन विष्णु परिवर्तनोत्सव मनाया जाता है। सहस्रशीर्षा | के प्रमुख धार्मिक कृत्य हैं। दिगम्बर आम्नाय में इसे विष्णु की तरह सहस्रफण होने के कारण शेषनाग को | दशलक्षण पर्व कह कर भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी भी अनन्त कहा जाने लगा था। अनन्त शयन (शेषशायी) | तक मनाया जाता है। इन दस दिनों में धर्म के दस भगवान् विष्णु इस अवधि में एक जगह ही रहते हैं | प्रकारों या तत्त्वों (उत्तम अर्थात् अध्यात्मोन्मुख क्षमा अर्थात् और आराम करते हुए भी भक्तों को संसारबंधन से मुक्त सहनशीलता, उत्तम मार्दव अर्थात् नम्रता, उत्तम आर्जव करते रहते हैं। इसी परम्परा में भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी अर्थात् सरलता व सहजता, उत्तम सत्य अर्थात् सच्चाई, को अनन्तविष्णु की पूजा करके वैष्णव लोग कच्चे सूत | उत्तम शौच अर्थात् निःस्पृहता, संयम अर्थात् अनुशासन, का चौदह गाँठोंवाला रंगा हुआ एक डोरा अपने बाजू तप, त्याग, आकिंचन्य अर्थात् अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पर बाँधते हैं, जो व्यापक वैष्णव परम्परा के अनुयायी | पालन और उपदेश श्रवण किया जाता है। इसके अनन्तर होने का प्रतीक है। यह बंधन संसार के बंधनों से मुक्ति | आश्विन कृष्ण प्रतिपदा को क्षमापन पर्व मनाया जाता दिलाता है। वैष्णवपरम्परा का यह उत्सव वर्षाकालीन | है, जब समाज के प्रत्येक व्यक्ति से मतभेद भुला कर चातुर्मास्य का प्रमुख व्रत है। किसी भी प्रतिकूल वचन या कार्य के लिये सबसे क्षमा - वैष्णव सम्प्रदायों में भक्तिकालीन धाराओं के आने | माँगी जाती है। के साथ, जब विष्णु के गोपाल और वृन्दावन-बिहारी श्वेताम्बर आम्नाय में इन उपवासों और आचारों रूप की माधुर्य लक्षणा भक्ति प्रचलित हुई, तो व्यापक | को पर्युषण कहा जाता है, जिसका शब्दार्थ है उपासना। और अनन्त विष्णु की मर्यादापरक पूजा उतनी सप्रचलित | वे भाद्रप्रद कृष्णा एकादशी से शक नहीं रही, जितनी मध्य काल में थी, तथापि उसके प्रतीक | मनाते हैं, जिसमें अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और के रूप में आज भी वैष्णवों मे अनन्त का व्रत करने | सर्व साधुओं का पूजन, नमन तथा सम्यक् दर्शन, सम्यक् और डोरा बाँधने की यह परम्परा चली आ रही है। ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य के सिद्धान्तों का चिन्तन व जैसा पहले बताया जा चुका है जैन आम्नायों में | पालन किया जाता है। इसके अनन्तर शुक्ल पंचमी को भाद्रपद मास के इन पर्वो का सर्वाधिक महत्त्व है। जैनधर्म | (जिसे सनातनी ऋषि पंचमी के रूप में मनाते हैं) संवत्सरी में शारीरिक वृत्तियों का अधिकाधिक संयम, आचार का | के रूप में मनाया जाता है, जो पुर्यषण पर्व की सम्पन्नता कट्टर अनुशासन और सांसारिक बन्धनों से पूर्ण विरक्ति | (सफल समाप्ति) का प्रतीक है। एक तरह से इस दिन आदि को प्रमुखता दी गयी है, इसी का अंग है उपवास श्रावक का आध्यात्मिक पुनर्जन्म या नया वर्ष शुरू हो (कषाय, विषय और आहार का त्याग), जिसका सिद्धांत जाता है। इस प्रकार जैनों के दोनों आम्नायों में भाद्रपद है शरीर का मोह त्याग कर उसकी वृत्तियों को नियंत्रित | मास के इन धार्मिक पर्यों को वर्ष का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण. करना। उपवास तथा अन्न-जल के त्याग की यह धारणा | आचारपर्व माना गया है। जैन आचार का महत्त्वपूर्ण अंग है। अन्न-जल त्यागी। राजस्थान में जैनधर्म का विपुल प्रचार होने के -दिसम्बर 2009 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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