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________________ उपर्युक्त कथन गलत है। आ. जयसेन की सही टीका | आदत छोड़ें। इसप्रकार है- "युक्तमुक्तं भवता, परं किन्तु ये प्रचुरेण जिज्ञासा- वेदक-प्रायोग्यकाल किसे कहते है? शुभोपयोगेन वर्तन्ते, ते यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां समाधान- जिस काल में वेदकसम्यक्त्व अर्थात् कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एवं भण्यन्ते। | क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होने की योग्यता होती है उस काल विज्ञ पाठक स्वयं देखें कि उपर्युक्त टीका को किस | को वेदक-प्रायोग्यकाल कहते हैं। इसके लिए गोम्मटसार प्रकार डायरी में अपने गलत अभिप्राय के अनुसार लिखा | कर्मकाण्ड में इसप्रकार कहा हैंगया है। टीका का सही अर्थ यह है- "आपने जो कहा | उदधिपुधत्तं तु तसे पल्लासंखूणमेगमेयक्खे। वह ठीक है, परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोग में वर्तन जाव य सम्मं मिस्सं वेदगजोग्गो य उवसमस्स तदो॥ करते हैं, वे यद्यपि किसी काल में शुद्धोपयोग की भावना अर्थ- सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की करते हैं, तो भी शुभोपयोगी ही कहे जाते हैं। इसका | स्थिति घटकर त्रस जीव के तो जब पृथकत्वसागर प्रमाण तात्पर्य यह है कि सामायिक आदि काल में श्रावकों के | शेष रहे तथा एकेन्द्रिय के पल्य के असंख्यातवें भाग कम शद्धोपयोग की भावना होने पर भी वे शुभोपयोगी ही | एक सागर प्रमाण शेष रहने तक 'वेदक योग्यकाल' है और कहे जाते हैं। अर्थात् श्रावकों को सामायिक आदि काल | सत्तारूप स्थिति उससे भी कम हो जावे तो वह उपशम में भी शुभोपयोगी ही कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि काल होता है॥ ६१५॥ वीरसागर जी की डायरी का यह प्रसंग भी गृहस्थों के भावार्थ- कोई उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षायोपशमिक शुभोपयोग ही सिंद्ध कर रहा है। सम्यग्दृष्टि जीव जब मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है, बडे आश्चर्य की बात है कि वीरसागर जी की | तब उसकी सत्ता में जो मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व डायरी में उपर्युक्त प्रसंग में 'शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते' | प्रकृति है उसकी उद्वेलना प्रारम्भ हो जाती है, अर्थात् के स्थान पर 'शुद्धोपयोगिन एव भण्यन्ते' ऐसा लिखा हुआ | सम्यक् प्रकृति सम्यक्-मिथ्यात्व रूप होने लगती है और क्यों पाया गया? यदि आँसू पोंछते हुए यह कह दिया जाये सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्वरूप होने लगती है। इन कि यह प्रेस की गलती है, तो फिर श्रावकों के शुद्धोपयोग दोनों प्रकृतियों की स्थिति घटने लगती है। जब तक त्रस कैसे सिद्ध कर कर पायेंगे? अर्थात् आचार्य जयसेन के | जीव के इन दोनों प्रकृतियों की स्थिति घटकर पृथकत्व किसी भी कथन से यह सिद्ध नहीं होता कि श्रावकों के | सागर न रह जाये तथा एकेन्द्रिय के पल्य के असंख्यातवें शुद्धोपयोग होता है। भाग कम एक सागर न रह जाये, तब तक उस जीव के ___ कतिपय साधर्मी भाइयों की यह मान्यता बन चुकी | वेदक-प्रायोग्यकाल है अर्थात् तब तक उस जीव के यदि है कि चौथें और पाँचवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है | होगा तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ही होगा, उपशम सम्यक्त्व जब कि द्रव्यानयोग के किसी भी ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख | हो ही नहीं सकता। तथा इन दोनों प्रकृतियों की स्थिति नहीं मिलता। द्रव्यानुयोग के समस्त ग्रन्थों का आलोडन | पृथक्त्वसागर तथा पल्य के असंख्यातवें भाग से कम एक करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि गुणस्थानों में उपयोग सागर रह जाती है, उसके बाद यद्यपि दोनों प्रकृतियों की का उल्लेख सिर्फ आचार्य जयसेन महाराज तथा ब्रह्मदेवसूरि | सत्ता है. फिर भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं हो सकेगा, के अलावा किसी ने नहीं किया है और इन दोनों के उल्लेख | यदि होगा तो उपशम सम्यक्त्व ही होगा। श्री धवला पू०१ के अनुसार तीसरे गुणस्थान तक अशुभोपयोग, बाद में छठे | पृष्ठ-३३ में भी इसी प्रकार कहा गया है। गुणस्थान तक शुभोपयोग और आगे सातवें से बारहवें | सम्यक् मिथ्यात्व एवं सम्यक्प्रकृति की उद्वेलना गुणस्थान तक शुद्धोपयोग कहा गया है। जब इतना स्पष्ट होकर उनकी स्थिति को पृथकृत्व सागर अथवा पल्य के कथन उपलब्ध है तब फिर इधर-उधर से खेंचतान कर | असंख्यातवें भाग से कम एक सागर प्रमाण होने में पल्य चौथे-पाँचवें गणस्थान में शद्धोपयोग की सिद्धि करने का का असंख्यातवाँ भाग काल लगता है। अत: उपशम 'प्रयास व्यर्थ में ही क्यों किया जाता है। ऐसे भाइयों से | सम्यक्त्व का जघन्य अन्तर पल्य का असंख्यातवाँ भाग कहा निवेदन है कि आगम के अनुसार अपनी बुद्धि बनायें और | गया है। इस तरह तोड़-मरोड़कर अपना अभिप्राय सिद्ध करने की जिज्ञासा- क्या पुलाक आदि पाँचों मुनि भावलिंगी -नवम्बर 2009 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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