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________________ E-482, E-483, E-491, E-492, E-493, E-494, E-495, | मांसाहारी पदार्थ किसी भी रूप में हमारे घर में प्रवेश E-570, E-572, E-585 न कर पाये, इस संकल्प के साथ इस अभियान को E-626, E-627, E-628, E-629, E-630, E-632, बल प्रदान करें। E-633, E-634, E-635, E-640. जिन हरे निशानवाले पॅकेज खाद्य उत्पादों पर किसी प्रकार के संदेह के निवारण हेतु सम्पर्क उपर्युक्त में से कोई भी E-number है, तो उसे फिलहाल करें। समस्त जानकारी / पत्राचार अवलोकन हेतु सदा मांसाहारी श्रेणी में रख कर तत्काल प्रयोग रोकने का | उपलब्ध है। अनुरोध है। इन सभी क्रमांकों के संबंधित अंतरघटक स्थानक / मंदिर आदि सार्वजनिक स्थानों पर इस के नाम एवं समस्त संभावित स्रोतों की जानकारी भी जानकारी की प्रतियाँ लगाकर, अखबार / पत्रिकाओं में उपलब्ध है। इसके अलावा निम्न E-numbers ऐसे हैं | प्रकाशित कर घर-घर तक, घर के प्रत्येक सदस्य तक जो प्राणीजन्य तो नहीं किन्तु, बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अभियान का संदेश पहुँचाने का विनम्र अनुरोध है। मंगल विशेष हानिकारक हैं। स्वास्थ की दृष्टि से त्याग करना | बेहतर है। सुशील कुमार टाटिया 'शाकाहार अभियान' Specifically harmful to children शांतिसदन, मेनरोड़, चोपड़ा विशेष रूप से बच्चों के लिए हानिकारक (०२५८६), २२०४८८, २२००६५ E-102, E-104, E-107, E-110, E-120, E-122, | नोट- E-numbers के बारे में अधिक जानकारी E-123, E-124, E-128, E-131, E-132, E-133, E-151, | के लिए kuruvinda.com पर सम्पर्क करें। E-154, E-155, E-160b. E-162 ('सम्यग्दर्शन' (मासिक), संपादक-नेमीचंद E-210, E-211, E-212, E-213, E-214, E-215, E-216, E-217, E-218, E-219, E-250, E-251, E-296 बांठिया, प्रकशक श्री अ.भा. सुधर्म जैन संस्कृतिरक्षक अंत में निवेदन यही कि अपना जैनत्व सुरक्षित संघ, जोधपुर-३४२०२ (राज.) सम्यग्दर्शन कार्यालय रखने हेतु इस अभियान में सक्रियता से सहभागी बनें। नेहरू गेट ब्यावर (राज.)- ०१४६२-२५१२१६, | २५७६९९ से साभार) अभिमान की सीमा एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अपने पुत्र को मूर्ति बनाने की कला सिखाने लगा। उसका पुत्र शीघ्र ही मेहनत और लगनपूर्वक बेहद खूबसूरत मूर्तियाँ बनाने लगा। उसकी मूर्तियाँ इतनी आकर्षक होती कि जो भी देखता दाँतों तले उँगली दबा लेता। लेकिन युवक का पिता उसकी बनाई मूर्तियों में कोई न कोई कमी निकाल ही देता। उसने अपने पिता से अपनी मूर्तियों की प्रशंसा सुनने के लिए और कड़ा अभ्यास करना शुरू कर दिया। शीघ्र ही उसकी कला में और निखार आ गया, किंतु फिर भी पिता के मुख से उसकी प्रशंसा के लिए एक भी शब्द न निकला। एक दिन उसने एक अत्यंत आकर्षक मूर्ति बनाकर अपने मित्र के द्वारा पिता के पास भिजवाई और स्वयं ओट में छिप गया। पिता उस मूर्ति को देखकर उस मूर्तिकार की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा और उसे एक महान कलाकार भी घोषित किया। पिता के मुख से मूर्तिकार की प्रशंसा सुन पुत्र बाहर निकलकर आया और गर्व से बोला “पिताजी, वह मूर्तिकार मैं ही हूँ। यह मूर्ति मैंने ही बनाई है। अब आप इसमें कोई कमी निकालिए। आखिर आज आपको मानना ही पड़ा कि मैं एक महान कलाकार हूँ।" पुत्र की बात पर पिता बोला, "बेटा, एक बात हमेशा याद रखना कि अभिमान व्यक्ति की प्रगति के सारे दरवाजे बंद कर देता है। आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नहीं की, इसलिए तुम अपनी कला में निखार लाते रहे। अगर आज तुमने यह नाटक अपनी प्रशंसा सुनने के लिए रचा है तो इससे तुम्हारी ही प्रगति में बाधा होगी।" पुत्र को अपनी गलती की अहसास हुआ और पिता से क्षमा माँग वह अपनी कला को और निखारने में लग गया। 'दृष्टांत महासागर' से साभार -नवम्बर 2009 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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