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स्त्री जाति की कई विशेषताएँ हैं जो आर्दश रूप हैं पुरुष के सम्मुख । प्रतिपल परतन्त्र हो कर भी पाप की पालड़ी भारी नहीं पड़ती पल-भर भी !
इनमें, पाप-भीरुता पलती रहती है अन्यथा,
स्त्रियों का नाम भीरु क्यों पड़ा ? प्रायः पुरुषों से बाध्य हो कर ही कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को परन्तु,
कुपथ- सुपथ की परख करने में प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने ।
स्त्री-जाति की कई विशेषताएँ
इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन- सारी मित्रता
मुक्त मिलती रहती इनसे ।
यही कारण है कि
इनका सार्थक नाम है 'नारी'
यानी
'न अरि' नारी...
अथवा
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ये आरी नहीं हैं सो... नारी... ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
जो
मह यानी मंगलमय माहौल, महोत्सव जीवन में लाती है महिला कहलाती वह ।
जो निराधार हुआ, निरालम्ब,
आधार का भूखा
जीवन के प्रति उदासीन - हतोत्साही हुआ
उस पुरुष में.....
मही यानी धरती
धृति-धारणी जननी के प्रति
अपूर्व आस्था जगाती है। और पुरुष को रास्ता बताती है सही-सही गन्तव्य कामहिला कहलाती वह !
इनता ही नहीं, और सुनो !
जो संग्रहणी व्याधि से ग्रसित हुआ है जिसकी संयम की जठराग्नि मन्द पड़ी है, परिग्रह - संग्रह से पीड़ित पुरुष को
मही यानी
मठा - महेरी पिलाती है,
महिला कहलाती है वह... !
'मूकमाटी (पृष्ठ २०१-२०३)' से साभार
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