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श्री हेमन्त काला जी कहते हैं कि 'पंचकल्याणकादि धार्मिक कार्य हैं, उनमें हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा करने-कराने से जो जीवघात होता है, उसमें प्रमाद का अभाव होता है। इसलिए कार्यक्रम की भव्यता बढ़ाने के लिए जीवघात कितना भी किया जाय, उसमें हिंसा का दोष नहीं लगता।'
यह एकदम गलत है, सरासर झूठ है, आगम का महान् अपलाप है। पूर्व में आगमवचन उद्धत करके यह स्पष्ट किया गया है कि प्रमाद (प्रमत्तयोग) का अभाव तब होता है, जब संकल्पी, आरंभी, उद्योगी और विरोधी इन चार प्रकार की हिंसाओं का परित्याग कर दिया जाय और सोने, उठने, बैठने, गमन करने आदि में षट्कायिक जीवों की रक्षा का यत्न किया जाय। हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा कराने में जो हिंसा होती है, वह आरंभी हिंसा है। हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा कराने का इच्छुक श्रावक उसका परित्याग नहीं करता, अपितु बद्धिपूर्वक कराता है तथा हेलीकॉप्टर चलानेवाला धरती और आकाश में षट्कायिक जी का यत्न नहीं कर सकता। अत: वहाँ प्रमाद ही प्रमाद है। 'काला' जी ने स्वयं वहाँ"सावद्यलेशो बहपण्यराशौ" वचन उद्धृत कर सावध (हिंसा) का लेश अर्थात् अल्पहिंसोत्पादक प्रमाद का सद्भाव स्वीकार किया है। यद्यपि यहाँ सावध का लेश नहीं, अपितु बाहुल्य है और पुण्यराशि का सद्भाव. तो क्या, पुण्यलेश का भी अभाव है, क्योंकि हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा बहुजीवविघातक होने से भक्ति प्रकट करने की जिनागमसम्मत विधि नहीं है। अतः उसके द्वारा पुण्यबन्ध नाममात्र के लिए भी संभव नहीं है।
यद्यपि मन्दिरनिर्माण आदि में भी बहुहिंसा होती है, तथापि मन्दिरों के माध्यम से जिनशासन की प्राणभूत अहिंसा का चिरकाल तक कई गुना अधिक प्रचार और आचार संभव होता है। किन्तु हेलीकॉप्टर द्वारा पुष्पवर्षा कराने से केवल हिंसा ही होती है, अहिंसा का लेशमात्र भी प्रचार और आचार संभव नहीं होता।
यदि हेलीकॉप्टर के प्रयोग से पंचकल्याणकादि धार्मिक कार्यों में होनेवाले बहुजीवविघात को प्रमत्तयोगरहित मानकर हिंसा न माना जाय, तो 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' के समान जिनशासन में भी 'धार्मिकी हिंसा हिंसा न भवति' की मान्यता निर्दोष सिद्ध होगी और इससे 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' की मान्यता का औचित्य प्रतिपादित होगा।
जिनागम में देवपूजा आदि के निमित्त से जीवघात करने का निषेध किया गया है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं
शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः। कृतः प्राणभृतां घातः पातयत्यवलम्बितम्॥ ८/१८॥ चरुमन्त्रौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा क्वचित्।
कृता सती नरैहिँसा पातयत्यवलम्बितम्॥ ८/२७॥ अनुवाद- "अपनी शान्ति के लिए, देवपूजा के लिए अथवा यज्ञ के लिए मनुष्यों द्वारा किया गया जीवघात उन्हें शीघ्र ही नरक में ढकेलता है। (८/१८)। इसी प्रकार देवता के लिए नैवेद्य तैयार करने हेतु, मन्त्रसिद्धि हेतु, औषध बनाने हेतु अथवा अन्य किसी कार्य के लिए लोगों के द्वारा की गई हिंसा उन्हें अविलम्ब नरक में पटकती है।
यहाँ केवल जैनेतर धर्मों में धर्म के नाम पर किये जानेवाले पशुवध का ही निषेध नहीं किया गया है, अपितु जैनधर्म में भी स्थावरकायिक जीवों की उस निष्प्रयोजन हिंसा का निषेध किया गया है, जो देवपूजादि की अल्पहिंसात्मक पद्धति को छोड़कर बहुहिंसात्मक पद्धति अपनाने से होती है। हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा पंचकल्याणकादि-पूजाविधि का अनिवार्य अंग नहीं ___ पूर्व में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की 'स्तौकैकेन्द्रियघाताद्' इत्यादि कारिका उद्धृत की गयी है, जिसमें श्रावकों को स्थावरकायिक जीवों का उतना ही घात करने का उपदेश दिया गया है, जितना जीवनयापन एवं धार्मिक
-अक्टूबर 2009 जिनभाषित 6
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