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________________ सम्पादकीय हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा में प्रमत्तयोग एवं अनर्थदण्ड 'जैन गजट' के २ जुलाई २००९ के अंक में पृष्ठ ३ पर मुनि श्री क्षमासागर जी के किसी प्रवचन का अंश छपा है, जिसका शीर्षक है 'हेलीकॉप्टर द्वारा पुष्पवृष्टि : एक विचारणीय दृष्टि'। इसमें मुनि श्री क्षमासागर जी के निम्नलिखित शब्द उद्धत किये गये हैं "यदि जैनधर्म में से अहिंसा को अलग कर दिया जावे, तो जैनधर्म में कुछ शेष नहीं बचता। अहिंसा जैनधर्म का आधार है। मैं तो कहता हूँ कि जो श्रावक / साधु धार्मिक अनुष्ठानों में हेलीकॉप्टर के मध्यम से फूलों की वर्षा कराते हैं, वे दोनों हिंसक हैं, साधु भी और श्रावक भी। यह ही नहीं, जो श्रावक हेलीकॉप्टर के माध्यम से फूलों की वर्षा देखने जाते हैं, उन्हें भी अनुमोदना करने से हिंसा का दोष लगता है। उन्हें देखने भी नहीं जाना चाहिए। अतः धार्मिक अनुष्ठनों से हेलीकॉप्टर का निषेध किया जाना चाहिए। यही नहीं, जिस श्रावक-दातार का पैसा हिंसा के कार्यों में लगता है, उसको भी दोष लगता है और पापकर्म का बन्ध होता है। भगवान् महावीर ने हमें मुख्य सूत्र दिया है- 'अहिंसा परमो धर्मः' और 'जियो और जीने दो।' दखने में आता है कि धार्मिक अनुष्ठानों में, जैसे पंचकल्याणक विधानों. आदि में हेलीकॉप्टर के माध्यम से फूलों की वर्षा कराई जाती है और इसी प्रकार मुनिराजों आदि के नगरप्रवेश, केशलोंच समारोह आदि में भी हेलीकॉप्टर के द्वारा फूलों की वर्षा करायी जाती है। आपने कभी सोचा है ऐसा करने से धर्म की प्रभावना हो रही है या जीवों की हिंसा हो रही है? हेलीकॉप्टर जब स्टार्ट किया जाता है, तब उसकी आवाज से अनेक सूक्ष्म जीवों का मरण हो जाता है और जब यह आकाश में चलता है, तो लाखों जीवों की हिंसा होती है। जहाँ हिंसा हो रही है, क्या हम इसे धर्मप्रभावना कह सकते हैं? यदि कुछ श्रावक / साधु इसे धर्म मानते हैं, तो वे महावीर भगवान् के अनुयायी नहीं है। वे 'अहिंसा परमो धर्मः'- आगम के विपरीत कार्य कर रहे हैं। 'जैनगजट' के सम्पादक महोदय ने उपर्युक्त उद्धरण के नीचे यह उल्लेख नहीं किया कि उसे उनके पास किसने प्रेषित किया है और मुनि श्री क्षमासागर जी के किस प्रवचन का यह उद्धरण है? बहुचर्चित विद्वान् पं० हेमन्त काला, इन्दौर (म० प्र०) ने ६ अगस्त २००९ के जैनगजट में पृष्ठ ४ पर अपना एक इण्टरव्यू प्रकाशित कराकर पूज्य मुनिश्री के उपर्युक्त मत को गलत ठहराया है। वे अपने इण्टरव्यू में अपने कथन का मतलब समझाते हुए कहते हैं- "मतलब यही कि आरम्भी, उद्योगादि कार्यों व उपभोगादि क्रियाओं में प्रमाद का सद्भाव होने से, उनमें प्रयुक्त होनेवाले यंत्रादि व द्रव्यादि का जहाँ तक बन सके, वहाँ तक परिहार करो व परिहार न बन सके, तो प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त करो, क्योंकि उन्हें चाहे जितने यत्नाचार से करो, वहाँ अल्पफल बहविघात ही है, किन्तु पंचकल्याणकादि कार्यों में प्रमा । अभाव होने से उन्हें जितनी भव्यता से कर सकते हो, उतनी भव्यता से करो, क्योंकि वहाँ 'सावद्यलेशो बहपुण्यराशौ' सूत्र का सद्भाव है।" . पूजादानादि धार्मिक क्रियाएँ भी आरंभाश्रित अत एव प्रमादयुक्त, माननीय हेमन्त काला जी का यह कथनं सर्वथा आगम विरुद्ध है कि पंचकल्याणकादि कार्यों में प्रमाद का अभाव होता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि भगवान् द्वारा उपदिष्ट दानपूजादि की क्रियाएँ भी आरंभ हैं, अत एव प्रमादभाव से युक्त होती हैं। एक शंका उठाकर उसका समाधान करते हुए वे लिखते हैं-"चउवीस वि तित्थयरा सावज्जा छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएसकारित्तादो। तं जहादाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ, पयण 'अक्टूबर 2009 जिनभाषित 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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