SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर काव्य रचना और भावन का व्यापक और गम्भीर | स्वाभावोक्ति और वक्रोक्ति। ध्वनि का समाहार वक्रोक्ति सिद्धान्त है। सम्भवतः इसीलिए टी.एस. इलियट ने कहा | में करते हैं। काव्य के ध्वनि, वक्रोक्ति और स्वाभावोक्ति था- “Every reader is a critic and every critic is | तीन भेद स्वीकृत हैं। 'जाति' स्वाभावोक्ति है। यह एक a good reader.” यहीं भावुक और भावक की संगति | गूढार्थ प्रतीतिमूलक अलंकार है। श्रेष्ठ कवियों की दृष्टि निर्मित होती है। सूक्ष्म वर्णन की ओर होती है। उनमें जीवन का सूक्ष्म यात्रा पूर्ण होने पर मौन रच जाता है। वाणी विराम | पर्यवेक्षण होता है। सूक्ष्म पर्यवेक्षण का चित्रमय वर्णन पा जाती है। इसीलिए तो डॉ. माचवे ने कहा 'जो आपका | स्वाभावोक्ति है। जायसी, सूर और तुलसी में इसका विशेष काव्य (मूकमाटी) है वह हिन्दी के लिए बहुत बड़ी आग्रह है। कबीरादि सन्तों में भी सूक्ष्म पर्यवेक्षण की उपलब्धि है, हम ये मानते हैं। ऐसी कोई चीज पहले | अभिलाषा है। अपनी सीमाओं के बावजूद रीतिकाव्य सूक्ष्म नहीं लिखी गयी और ये कई दृष्टियों से अभूतपूर्व रचना | वर्णन का आग्रही है। आधुनिक काव्य में इस ओर प्रवृत्ति है।' (वही, xxii)। यह बहुत आधुनिक है मेरे मत से, | हैं। 'जाति' स्वाभावोक्ति का प्राचीन नाम है: Jati is the क्योंकि ये विज्ञान के लिए भी प्रेरित करता है। (वही, | old name of swabhavaokti. (Dr. V. Raghavan - xxiv)। मैं इसको फ्यूचर पोपॅट्री, यानी भविष्यवादी काव्य, Studies on the some concepts of Alankara shastra, p.92) 'नवरस जप तप जोग बिरागा' के भाव-साम्य जैसा कि अरविन्द ने कहा, इसे बहुत अच्छा दिशादर्शक पर तथ्यतः 'मूकमाटी' में नवों रसों का स्थित्यनुसार समाहार मानता हूँ। अन्य कवियों के लिए भी ये बहुत प्रेरणादायक है। ग्रन्थ है। (वही, xxiv)। तत्त्वतः यह 'मूकमाटी' अध्यात्म और समाज को भाषा की सम्प्रेषण-शक्ति अद्भुत है। शब्द और अर्थ के सहभाव में यह काव्य विचारणीय है। सहभाव एक बिन्दु पर प्रतिष्ठित करने का महत् उद्घोष है। सीमित 'मैं' का असीम 'मैं हँ' (I am) में पर्यवसान में सहित का भाव है सबका सार-सँभार ही इसकी प्रतिज्ञा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं सब कै सार सँभार गोसाईं। 'पातनिकी' (आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी) व्यापक है। करबि जनक जननी की नाईं। (मानस : २.८०) शास्त्रोज्जवला बुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति को पण्डित कहते कवि को शब्द और अर्थ का बल होता है शब्द हैं। काव्य का उत्कर्ष विधायक तत्त्व गुण है और अपकर्ष तो वर्ण-संघात है। वर्ण यानी अक्षर से व्यंजित होनेवाला ही दोष है। तथा गुण-दोष-विवेचन आलोचना नहीं है। अर्थ शब्दार्थ मात्र नहीं है। वह तो (अर्थ) जीवन का आलोचना कृति का सम्यक् मूल्यांकन है। तदपि मूल्यांकन तात्कालिक अनुभव है। गोस्वामीजी ने कहा हैसे विशिष्ट है। श्वसनक्रिया की तरह अपरिहार्य है। 'मूकमाटी' लोकमंगल की भावना से लिखी गयी 'कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। है। (आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी : वही, xxiv) । लेखकीय अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥' (मानस : २.२४१) और पाठकीय संवेदना का यह समाहृत रूप है। आचार्य वेदना और युक्ति को जैनदर्शन के धरातल से राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार इसकी विधा शास्त्र-काव्य किंचित् विस्तार देकर विद्यासागर जी ने भारत के सनातन की है। 'मा निषाद' (वाल्मीकि) में लोकमंगल का भाव चिन्तन को अंगीकृत किया है। विष्णुकान्त शास्त्री ने यथार्थ निहित है। वियोग उद्भूत जीवन की गम्भीरतम अनुभूतियों अध्यात्म और रस का 'मूकमाटी' में समन्वय स्वीकार का महाकाव्य वाल्मीकीय रामायण है। किया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने वैचारिक, आध्यात्मिक रामप्रधान शान्त रस 'मूकमाटी' का अंगीरस है। और नैतिक तत्त्वों से युक्त संवाद को महाकाव्य कहा काव्य के कथित भेदों में तुलसीदास के अनुसार है। प्रेरणा के मंगल और मंगल की प्रेरणा का यह काव्य 'धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहु भाँती॥' (मानसः १.३७) है। माटी मौन में अपनी कथा कहती है। आचार्य राममूर्ति ठीक कहते हैं कि सम्पूर्ण मृत्तिका- घट की आत्मकथा 'धुनि'- ध्वनि, 'अवरेब' वक्रोक्ति, तथा 'जाती' प्रतीकात्मक है। असत्य से हम सत्य की ओर अग्रसर स्वाभावोक्ति है। कुन्तक काव्य के दो प्रकार मानते हैं- | " है। -अक्टूबर 2009 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy