SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं। सामयिक / सामायिक : स्वरूप और विधि ___ डॉ. पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य 'सामयिक' शब्द 'समय' शब्द से निष्पन्न होता । होकर पर-पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि कर स्वयं दु:खी है और 'सामायिक' 'समाय' से सिद्ध होता है। 'समय' | हो रहा हूँ। पर पदार्थ, न इष्ट होता है और न अनिष्ट। का अर्थ आत्मा होता है, उसमें होनेवाले को सामयिक | यह प्राणी अपनी आवश्यकता के अनुसार एक ही पदार्थ कहते हैं और 'समाय' शब्द का अर्थ समता / मध्यस्थता | को कभी इष्ट मानता है और आवश्यकता पूर्ण हो जाने की-प्राप्ति होती है, इसमें होनेवाले को सामायिक कहते | पर कभी अनिष्ट मानने लगता है। गर्म वस्त्र शीतकाल में इष्ट होते हैं और उसके निकल जाने पर अनिष्ट सामायिक के लिए 'सामयिक' और 'सामायिक' | लगने लगते हैं। ये दो शब्द प्रचलित हैं। समन्तभद्राचार्य ने अपने रत्नकरण्ड | . सामायिक में बैठा हुआ गृहस्थमानव, जितना परिग्रह श्रावकाचार में 'सामयिक' शब्द का प्रयोग किया है और उसके शरीर पर होता है, उतने को ही अपना मानता अन्य ग्रन्थकारों ने 'सामायिक' शब्द का। दोनों शब्दों की है, सामायिक के काल में अन्य परिग्रह को वह अपना निरुक्तियाँ भिन्न प्रकार हैं। 'सामयिक' शब्द 'समय' शब्द | नहीं मानता। यही कारण है कि समन्तभद्र स्वामी ने से निष्पन्न होता है और 'सामायिक' शब्द 'समाय' शब्द | उसे 'चेलोपसृष्ट' (जिसे किसी ने उनकी इच्छा के विरुद्ध से सिद्ध होता है। 'समय' का अर्थ आत्मा होता है, | वस्त्र उड़ा दिया है) मुनि की उपमा दी है। यह उतने उसमें होनेवाले को 'सामयिक' कहते हैं और समाय शब्द | समय तक पंच पापों का त्यागी होने से उपचार से महाव्रती का अर्थ समता / मध्यस्थता की प्राप्ति होता है। उसमें | के समान माना जाता है। होनेवाले को 'सामायिक' कहते हैं। 'समय' और 'समाय' ___सामायिक करने से पहले निर्द्वन्द्व स्थान का चयन दोनों शब्दों से तद्धित का ठक् (इक्)प्रत्यय होकर तथा | कर लेना चाहिये। पश्चात् उपद्रव आने पर उसे उपसर्ग आदि-अन्त की वृद्धि होने पर सामयिक और सामायिक | समझ कर सहन कर लेना चाहिए। सामायिक का प्रारम्भ शब्द सिद्ध होते हैं। पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर करना चाहिए। ___ यह सामायिक मुनियों के आवश्यक कार्यों में | यदि प्रतिमाजी के सम्मुख बैठने का अवसर प्राप्त होता 'समता' शब्द से उल्लिखित है। प्रत्येक मुनि को इष्ट- | है, तो पूर्व या उत्तर दिशा का विकल्प नहीं रहता। सर्वप्रथम अनिष्ट का प्रसंग आने पर समताभाव रखना आवश्यक | खड़े होकर नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त है। गृहस्थ श्रावक के लिये शिक्षा-व्रत के रूप में | करने के पश्चात भूमि का स्पर्श करते हये घटने टेक 'सामायिक' करना आवश्यक बताया गया है। दिन में | कर नमस्कार करना चाहिए। पश्चात् दाहिनी ओर घूमते दो बार, या सामायिक प्रतिमाधारी की अपेक्षा तीन बार, | हुए चारों दिशाओं में णमोकार मन्त्र पढ़कर तीन-तीन २ घड़ी, ३ घड़ी अथवा ६ घड़ी तक सामायिक करने | आवर्त और एक शिरोनति करना चाहिये। इस प्रकार का विधान है। एक घड़ी २४ मिनिट की होती है। गृहस्थ- | चारों दिशाओं के बारह आवर्त और एक अन्तिम कायोत्सर्ग श्रावक निरन्तर समताभाव में स्थिर नहीं रह सकता, इसलिए की शिरोनतियाँ हो जाती हैं। कृतिकर्म कर चुकने के उसे प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में निश्चित समय तक | बाद शरीर की शक्ति के अनुसार पद्मासन, अर्ध-पद्मासन, अवश्य ही सामायिक करना चाहिये। इस 'सामायिक' | पर्यंकासन, अथवा कायोत्सर्ग की मुद्रा में सामायिक करना से उसे मुनियों के समताभाव नामक 'आवश्यक' का | चाहिये। अभ्यास होता है। . ___ सामायिक के ६ अंग हैं - १. प्रतिक्रमण, २. सामायिक के समय अपना उपयोग अन्य विषयों | प्रत्याखान, ३. सामायिक, ४. स्तुति, ५. वन्दना और ६. से हटाकर 'समय' अर्थात् आत्मा में लगाना चाहिये। | कायोत्सर्ग। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैमेरा ज्ञाता-द्रष्टा जानने और देखने का स्वभाव है, राग- | प्रतिक्रमण- अपनी दिनचर्या में जो पापरूप प्रवृत्ति हुई द्वेष करना नहीं। मैं अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव से च्युत | है, उसके प्रति पश्चात्ताप प्रकट करते हुए क्षमायाचना करना। अक्टूबर 2009 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy