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महत्त्व दिया कि उसी को सम्यग्दर्शन निरूपित किया । उन्होंने सच्चे देव का लक्षण बताते हुए कहा कि वह सर्वज्ञ, निर्दोष, वीतरागी और हितोपदेशी 'भवितव्यं नियोगेन' अनिवार्य रूप से होता है और कहा 'नान्यथा ह्याप्तता भवेत्' अन्य प्रकार से सच्चा देवपना हो ही नहीं सकता है। उपर्युक्त दोनों वाक्यांशों के द्वारा आचार्य देव शब्दों के अधिकतम बलपूर्वक सच्चे देव का लक्षण प्ररूपित करते हैं। दर्शनपाठ में हम भावना करते हैं 'वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति' वीतराग देव के अतिरिक्त जो रागी -द्वेषी देव उनकी आराधना मैं कभी भी नहीं करूँ ।
गया है वे कुदेव हैं। इनकी पूजा का उद्देश्य केवल एक ही है- ऐहिक सुख या ऐहिक विपत्तिनिवारण। इसके अतिरिक्त पारमार्थिक उद्देश्य वे रागी -द्वेषी सदोष देव सिद्ध ही नहीं कर सकते। यह कहना सर्वथा हास्यास्पद है कि उन रागी - द्वेषी देवताओं की पूजा बिना किसी उद्देश्य से की जाती है। मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी बिना प्रयोजन किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। लेखक महोदय ने और एक मिथ्या तर्क उपस्थिति किया है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार की कारिका ६४ में उल्लेख किया है कि देवताओं ने चाण्डाल की अतिशययुक्त, उत्तम प्रकार से पूजा की। लेखक आगमज्ञ विद्वान् व्यक्ति हैं। आश्चर्य है कि वे उक्त प्रसंग में पूजा शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया गया है, यह नहीं समझ रहे हैं । यहाँ पूजा, प्रशंसा एवं आदर के अर्थ में प्रयुक्त है । अहिंसा अणुव्रत का दृढ़ता से पालन करने एवं संकट आने पर भी व्रत से चलित नहीं होने से देवताओं ने भी चांडाल की प्रशंसा की एवं आदर पूर्वक अभिवादन किया। यह व्रतपालन करने रूप धर्म को धारण करने की महिमा है। लेखक महोदय से हमारा निवेदन है कि उक्त कारिका की टीकाओं के सहारे उसका सही अर्थ जानकर अपनी अज्ञानता को दूर करें। संयम से पूज्यता आती है, इस दृष्टि से भी देशव्रतधारी मनुष्य देवताओं के द्वारा पूज्य होता है, किंतु उस मनुष्य के द्वारा वे देवता और वे भी भवनत्रिक के देवता कभी पूज्य नहीं हो सकते। यह भी उल्लेखनीय है कि यहाँ पूजा शब्द प्रशंसा एवं आदर व्यक्त करने के अर्थ में है न कि अष्ट द्रव्य से पूजा करने के अर्थ में। क्या उस चांडाल को 'अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति' बोलेंगे? अष्ट द्रव्य से पूजा केवल पारमार्थिक नव देवों की ही की जाती है और उन्हीं से अष्ट द्रव्यों के समर्पण करने का तत्तद् संबंधी फल चाहा जा सकता है।
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सच्चे देव की यह विधिपरक परिभाषा कि जो वीतरागी अठारह दोषों से रहित, सर्वज्ञ, हितोपदेशी होता है, वही सच्चा देव होता है, सभी श्रावकाचारों में एवं अन्य ग्रंथों में मान्य की गई है। निषेधपरक परिभाषा स्वयमेव यह हो जाती है कि जो रागीद्वेषी हैं, वे सच्चे देव नहीं हो सकते, अर्थात् वे कुदेव होते हैं। सच्चे देव के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है, अतः इससे यह स्वयमेव फलित होता है कि रागी -द्वेषी देवों की देवरूप श्रद्धा मिथ्यादर्शन है। सम्यग्दर्शन की मूल परिभाषा में तो सच्चे देव का लक्षण बताते हुए उसकी श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा ही है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र भी सम्यग्दर्शन के दोषों में भी मूढ़ताओं, दोषों व अनायतनों में तीन स्थानों पर कुदेव की पूजा का निषेध किया गया है। देवमूढ़ता के वर्णन में आचार्य समंतभद्रदेव ने स्पष्ट लिखा है कि 'वरोपलिप्सयाऽशावान् रागद्वेषमलीमसा । देवतायुदपासीत देवतामूढ़ उच्यते ॥' इस स्पष्ट उल्लेख के बाद यद्यपि विषय में शंका के लिए कोई स्थान नहीं रहता है, तथापि तर्काभासों के सहारे पैंतरे बदलने में प्रवीण लेखक ने एक और अति विचित्र सर्वथा मिथ्या बिंदु उठाया है कि इस कारिका में रागद्वेष से मलिन देवतओं की उपासना को नहीं, अपितु उनसे ऐहिक सुखों की अभिलाषा से उपासना करने को देवमूढ़ता कहा है । वे यह कहना चाहते हैं कि ऐहिक सुखों की अभिलाषा के बिना तो राग-द्वेषी देवताओं की पूजा की जा सकती है। संभवतः लेखक महोदय के पास जब देवमूढ़ता दोष के निराकरण के लिए कोई उपाय नहीं रहा, तो सब पाठकों को मूर्ख समझते हुए लेखक निराधार तर्काभास प्रस्तुत कर किसी तरह मुँह छिपाना चाहते हैं। मूलतः | देव ने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर वीतरागी देव रागी -द्वेषी देवताओं की पूजा का निषेध इसलिए किया। को ही सच्चा देव बताया है। मोक्खपाहुड में सच्चे देव
दिगम्बर जैनधर्म के महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद
अक्टूबर 2009 जिनभाषित 18 www.jainelibrary.org
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इसी प्रकार सम्यक्त्व के आठ दोषों में मिथ्यादर्शन एवं मिथ्यादृष्टि की स्तुति वंदना करना मूढदृष्टि नामक दोष है । रागी-द्वेषी देवों की वंदना-आराधना मिथ्यादर्शन है। आगे अनायतन दोषों में मिथ्यादेव, शासनदेव आदि, मिथ्यागुरु एवं उनके उपासकों की उपासना करना या प्रशंसा करना कहा गया है।
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