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________________ भी देव स्वामी नहीं होता है, इसलिए ये दिक्कुमारी । हैं, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि ७/३७ में कहा हैकहलाती हैं। तथा कुछ महानुभाव ऐसा भी कहते हैं | 'भोगाकांक्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा कि स्वर्गों में कोई भी देवी अपने स्वामी देव के बिना | निदानम्।' नहीं होती। सभी देवियों का कोई न कोई देव स्वामी | अर्थ- भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण अवश्य होता है। इस संबंध में जम्बूदीपपण्णत्तिसंगहो की चित्त नियम से दिया जाता है, वह निदान है। निम्न गाथाएँ ध्यान देने योग्य हैं अनिष्टशांति के लिए या आए हए कष्ट के णिच्चं कुमारियाओ अहिणवलावण्णरुवजुत्ताओ। निवारणार्थ यदि पूजा-विधान आदि किए जाते हैं, तो आहरणभूसिवाओ मिदुकोमलमहुरवयणाओ॥१३६॥ | वे निदान के अंतर्गत नहीं आते। श्री आदिपुराण ४१/८४तेसु भवणेसु णेया देवीओ होंति चारुरूवाओ। | ८५ में इस प्रकार कहा हैधम्मेणुप्पण्णाओ विसुद्धसीलस्स भावाओ॥ १३७॥ ततः प्रविश्य साकेतपुरमाबद्धतोरणम्। __ अर्थ- उन भवनों में सदा कुमारी रहनेवाली ये केतुमालाकुलं पौरः सानन्दमभिनन्दिनः॥ ८४॥ देवियाँ अभिनव लावण्यरूप से संयुक्त, आभरणों से भूषित, शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्टशान्तये। मृदु, कोमल एवं मधुर वचनों को बोलनेवाली, सुन्दर जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यैः पुण्यचेष्टितैः॥ ८५॥ रूप से सहित और विशुद्ध शील व स्वभाव से सम्पन्न अर्थ- तदनन्तर नगर के लोग आनन्द के साथ होती हैं। जिनका अभिनन्दन कर रहे हैं, ऐसे उन महाराज भरत . उपर्युक्त कथन यद्यपि रुचकगिरि आदि पर निवास | ने जिसमें जगह-जगह तोरण बाँधे गए हैं और जो करनेवाली और गर्भ एवं जन्म के समय तीर्थंकर की | पताकाओं की पंक्तियों से भरा हुआ है, ऐसे अयोध्या माता की सेवा करनेवाली दिक्कुमारियों के संबंध में नहीं | नगर में प्रवेश कर, देखे हुए १६ खोटे स्वप्नों से होनेवाले कहा गया है, तथापि इस कथन से यह तो स्पष्ट होता | अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करना, ही है कि कुछ देवियाँ आजीवन कुमारी अर्थात् पति- | उत्तम पात्र को दान देना आदि पुण्य क्रियाओं से शान्तिकर्म रहित रहनेवाली भी होती हैं। अतः कदाचित् यह भी | किया। सम्भव है कि माता की सेवा करनेवाली दिक्कुमारियाँ | इससे यह स्पष्ट होता है कि अनिष्टशांति के लिए भी स्वामीरहित होती हों और इसीकारण दिक्कुमारी या | किए गए पूजा विधान आदि निदान नहीं हैं, उनका करना दिक्कन्यायें कहलाती हों। विद्वद्गण कृपया अवश्य विचार | उपयुक्त है। करें। जिज्ञासा- मैं स्वयं को सम्यग्दृष्टि मानता हूँ, तो प्रश्नकर्ता- ब्र. नवीन भैया जी, जबलपुर। क्या मेरे द्वारा जो पंचेन्द्रियों के भोग किए जाते हैं, वे जिज्ञासा- क्या अनिष्टशांति के लिए पूजा-विधान सब निर्जरा के ही कारण हैं, या बंध के भी? करना उचित है? आगमप्रमाणसहित उत्तर दें। यह निदान समाधान- ऐसा प्रतीत होता है कि समयसार ग्रन्थ में आएगा या नहीं? | की गाथा नं. १९३ पढ़कर आपने उपर्युक्त प्रश्न किया समाधान- वर्तमान में पूजाविधान करने के तीन है। गाथा इस प्रकार हैअभिप्राय दृष्टिगोचर होते है उवभोगमिंदियेहिं, दव्वाणमचेदणाणमिदाराणं। १. इस भव में एवं अगले भवों में मुझे सांसारिक जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं॥ १९३॥ वैभव तथा उत्कृष्ट पदों की प्राप्ति हो। अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा जो चेतन २. अनिष्ट कार्यों की शान्ति के लिए। और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है, वह सब निर्जरा ३. देवपूजा आदि सम्यक्त्व को बढानेवाली क्रियायें | का ही निमित्त है। हैं, अतः आत्मकल्याण के लिए। इसकी टीका में आ० अमृतचन्द स्वामी लिखते उपर्युक्त तीनों कारणों में से प्रथम कारण अर्थात | हैं कि- 'विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव' अर्थ- वीतराग भोगों की आकांक्षासहित यदि पूजाविधान आदि किये | का उपभोग निर्जरा के लिए ही है।। जाते हैं, तो वे निश्चितरूप से निदान के अन्तर्गत आते उपर्युक्त गाथा की टीका में श्री जयसेनाचार्य जी 29 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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