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________________ ज्ञान पर उँगली नहीं उठाई जा सकती।' यह पढ़कर | थे और मूर्ति की पूर्णता तक उनका निर्देशन लिया जाता एक जिज्ञासा यह है कि किसी की करनी और कथनी | रहा था। प्रश्न है कि फिर भी यह अशुद्धि कैसे रह में एकरूपता न होने पर भी क्या उस ज्ञान को प्रामाणिक | गई। सेठ जी ने तो उसके निर्माण में भक्ति-भाव से माना जा सकता है? भट्टारक-लेखकों ने वास्तुशास्त्र या | अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग किया था। हमने अपनी मंत्र-तंत्र के बारे में जो भी लिखा है, उसके मूल स्रोत खुली आँखों के सामने उन्हें भक्ति-विह्वल होकर मूर्ति को जाने बिना उससे सहमत कैसे हुआ जा सकता है? | के इर्द-गिर्द हर्षातिरेक से नाचते-गाते देखा है, हम कैसे ___ आलेख में 'प्रत्यक्ष प्रमाण' उपशीर्षक से भयभीत | विश्वास करें कि एक भक्त को भी ऐसा कठोर दण्ड करने वाले कुछ प्रसंगों का भी उल्लेख किया गया है, | मिल सकता है? बाद में जिन वास्तुविद् प्रतिष्ठाचार्यों जिन्हें पढ़कर तो हम बड़ी चिन्ता में पड़ गए हैं। एक | ने इस सदोष मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई, क्या उनके संज्ञान सुझाव देने का मन हो रहा है। नगर-नगर में घूमकर | में भी यह दोष नहीं आ सका? ऐसी-ऐसी भयानक घटनाओं का एक सर्वे करना चाहिए। अन्य वर्णित प्रसंगों के भी तर्कसम्मत विश्लेषण उन सबका पता लगाकर वास्तुप्रसंग-सहस्री शीर्षक से | की आवश्यकता है। हमें तो आश्चर्य है कि स्वाध्यायशील एक संग्रह-ग्रन्थ प्रकाशित होने पर उससे पीड़ितों को | वयोवृद्ध एवं अनुभववृद्ध श्री शान्तिलालजी बैनाड़ा ने कैसे बड़ा लाभ होगा और वे उनसे बोध प्राप्त कर भविष्य | तो इन प्रसंगों को वास्तुदोष से जोड़कर प्रस्तुत किया में अपने सम्यक्त्व को सुरक्षित रख सकेंगे। हर घर में | और कैसे हमारे सुधी विद्वानों ने इन प्रसंगों को प्रत्यक्ष एक-न-एक ऐसी घटना आसानी से सुलभ हो जाएगी। | प्रमाण (?) की संज्ञा दे डाली, अवधिज्ञान के बिना आलेख में वर्णित इन पाँच प्रसंगों में एक प्रसंग | तो यह सब हमें कैसे भी सम्भव नहीं दिखता। हमारे नगर के उदारमना सेठ छदामीलाल जी की मृत्यु जहाँ तक धनार्जन की बात है, वह तो जीवनके ३४ वर्षों के बाद उसके कारण का उद्घाटन करने निर्वाह के लिए आवश्यक है। वैसे भी धन को तो ग्यारहवाँ वाला भी है, जिसके बारे में इससे पूर्व न तो हमने | प्राण कहा गया है। जिस विधि से भी वह आए, हमें किसी से सुना और न कहीं पढ़ा है। जिस मूर्ति के | क्यों ईर्ष्या होगी, पर इतना तो ध्यान रखना ही होगा सदोष होने के कारण उनकी निन्दनीय मृत्यु होना बताया | कि पहले तो किसी को भयभीत करें और फिर उसे य वह मूर्ति अप्रतिष्ठित थी। प्राण- | भय से मुक्ति का उपाय बतायें, श्रावक के लिये धन हीन पाषाण-पिण्ड से जब इतनी बड़ी अनहोनी हो सकती | कमाने का यह तरीका उचित नहीं है, यह तो कीचड़ है, तो प्रतिष्ठित होने के बाद वह और क्या क्या गुल | में पैर सानकर फिर उसे पानी से धोने के समान हैं। खिलायेगी और किन-किन को उसके दुष्परिणाम भोगने निवेदन है कि असहमति को विरोध न समझ पड़ेंगे, यह सोचकर लोगों के मन व्याकुल हो उठेंगे, | कर वर्तमान में चल रहीं वास्तुशास्त्रीय प्रवृत्तियों के क्या ऐसी कोरी कल्पनाओं से वास्तुशास्त्र की समीचीनता | पुलर्मूल्यांकन की विनम्र अपील के रूप में स्वीकार किया सिद्ध हो सकेगी? जाए। सोचने की एक बात यह भी है कि सेठ जी सिद्धान्त तो वही है, जो हम प्रतिदिन सामायिक न तो कोई वास्तुशास्त्री थे, जो उसके निर्दोष होने की | पाठ में पढ़ते हैं- 'निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न परख कर पाते और न वह मूर्ति के शिल्पकार ही थे। कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन।' प्रवृत्ति जो भी हो, मूर्ति तो उस कलाकार ने बनाई, जिसे तक्षण-कला की | | श्रद्धा में तो यही भाव रहना चाहिए। इत्यलम् । निपुणता के लिये 'पद्मश्री' की उपाधि से नवाजा जा सम्पर्क सूत्रचुका था। मूर्ति के शिला-पूजन के शुभ मुहूर्त (१२ सितम्बर १०४, नई बस्ती, फीरोजाबाद (उ.प्र.) १९७३) के दिन चार वास्तु-विशारद भट्टारकगण उपस्थित मो. ०९३५८५८१००८ 27 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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