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________________ बिहारी की गजलें स्व० श्री बिहारीलाल जी जैन M URDURARIAnamnau 'स्व-पर' के भेद का दिल में 'स्व-पर' के भेद का दिल में जो दृढ़ श्रद्धान हो जाए। मेरी जन्नत का दर खुल जा, मेरा निर्वान हो जाए। पकड़ से मोह-ज़ालिम की, जो एक पल भर भी मैं छूढूँ। तो फिर खुद को समझने का सरो सामान हो जाए। मेरी यह देह 'पर' है, मैं हूँ केवल शुद्ध आतम ही। जो, हो जा धारणा सच्ची, तो सम्यक-ज्ञान हो जाए। कषायों की पकड़ में जा फँसा, मिथ्या के आलम में। मैं इन पर भी फ़तह पाऊँ, अगर यह ध्यान हो जाए। बड़े सौभाग्य से सत्कुल मिला, नर-योनि भी पाई। छवि है वीतरागी मेरी भी, यह ध्यान हो जाए। बिहारी पंच परमेष्ठी, ये सब तेरे ही नक्शे हैं। जो सम्यक-ज्ञान हो जाए, तो केवल-ज्ञान हो जाए। 'मिथ्यात' सा जालिम जो 'मिथ्यात' सा जालिम जो, मुझको मिला ना होता। चक्कर का अनादि से ये सिलसिला न होता॥ निज रूप जो पा जाता, पा जाता नज़ात मैं भी। गर कर्म-शत्रु, मेरा, घेरे क़िला न होता॥ अज्ञान के लूटे थे, पुरुषार्थ से छूटे थे। फिर क्यों न ज़ेरे-दुश्मन, यह काफिला न होता॥ मद-मोह में फँसे थे, मिथ्यात के डंसे थे। अज्ञान से कलेजा, अपना हिला ना होता॥ यूँ ही हमेशा क़ातिल, मुझको सताया करता। शुभ-योग से जिनवर में दिल मुबतिला न होता। नाचीज़ 'गैर' रहज़न, तुझको चुनौती मेरी। कहता न इस तरह जो, बिल्कुल तुला न होता। सम्यक्त्व को पाया है, शुभ योग 'बिहारी' ने। इसके बैग़र इतना, निर्भय, खुला न होता॥ "बिहारी की गज़लें' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524339
Book TitleJinabhashita 2009 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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