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________________ प्रश्नकर्ता- सौ० कंचनबाई, अलीगढ़। जिज्ञासा- क्या सम्मेदशिखर पर जन्म लेनेवाले त्रस व स्थावर जीव निकटभव्य ही होते हैं? समाधान- सम्मेदशिखर शाश्वत निर्वाण धाम है। इसके संबंध में सबसे विस्तृत वर्णन 'श्रीसम्मेदशिखर माहात्म्यम्' ( रचियता - श्री लोहाचर्य), में उपलब्ध होता है आपके प्रश्न के समाधान में, इस ग्रन्थ में इस प्रकार कहा गया है वदन्ति मुनयश्चैवं केवलज्ञज्ञनसंयुताः । भव्यराशेः कीदृगपि पापिष्ठस्तत्र तिष्ठति ॥ २६ ॥ एकोनपञ्चाशज्ञ्जनमध्ये सोऽपि प्रमुच्यते । एकेन्द्रियेभ्यः संसार आ पञ्चेन्द्रियजन्तवः ॥ २७ ॥ ये तत्र भागादुत्पन्ना नानानामाकृतिप्लुताः । गणितव्याः भव्यराशेश्चान्येषां तत्र नोद्भवः ॥ २८ ॥ अर्थ- केवलज्ञानी मुनिराज ऐसा कहते हैं कि, भव्य राशि का कोई भी, कैसा भी, पापी जीव सम्मेदशिखर पर ठहरता है या बैठता है तो ४९ भवों के अन्दर ही, वह मुक्त हो जाता है। इस संसार में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों में जो नाम कर्म की विभिन्नता से अनेकानेक आकृति वाले हैं, वे भव्य राशि के हिस्से से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर उत्पन्न होते हैं, वे निश्चत ही उनचास भर्वो के भीतर मोक्ष जाने योग्य भव्य जीव हैं भव्य राशि से । अन्य जीवों का वहाँ जन्म ही नहीं होता है। (पृष्ठ १११२) । जिज्ञासा समाधान यहाँ ऐसा विचार उठता है कि क्षेत्रपरिवर्तन के अन्तर्गत अभव्य को भी पूरे लोक में उत्पन्न होना होता है। तब उपर्यक्त कथन की धारणा कैसे बनाई जाए? इस प्रश्न के उत्तर में पं० माणिकचंद जी कौन्देय ने लिखा है कि जैसे भवपरिवर्तन में वैमानिक देवों के ३२ या ३३ सागर आयुवाले प्रकरण या भावपरिवर्तन में तीर्थकर आहारद्विक, प्रकृतिबंधयोग्य कषायाध्यावसायस्थान और अनुभाग- बंधाध्यवसायस्थान छोड़ने पड़ते हैं, उसी तरह क्षेत्रपरिवर्तन में १७० सम्मेदशिखर छोड़ने पड़ते होंगे। उपर्युक्त प्रकरण के अनुसार सम्मेदशिखर सिद्ध क्षेत्रों (सभी ढाई द्वीप संबंधी १७०) पर उत्पन्न होने वाले सभी त्रस व स्थावर जीव निकटभव्य ही होते हैं। प्रश्नकर्त्ता पं० गुलझारी लाल जैन, रफीगंज । जिज्ञासा क्या नारकी जीवों का मूल शरीर 26 मई 2009 जिनभाषित Jain Education International पं० रतनलाल बैनाड़ा सप्तधातुमय होता है या यह उनकी विक्रिया है? समाधान आपने अपनी जिज्ञासा के साथ 'जैन तत्व विद्या' पृष्ठ ६८ का प्रमाण भेजा है, जिसके अनुसार वैक्रियिक शरीर होने के बाद भी अनका शरीर सप्तधातुमय होता है। आपने दूसरा प्रमाण तत्वार्थवार्तिक पृष्ठ ४४५ (३/३) का भेजा है, जिसके अनुसार 'यद्यपि उन नारकियों का शरीर वैकियिक है तथापि उसमें इस औदारिक शरीरगत मलमूत्रादि से अधिक खकार, मूत्र, मल (टट्टी), रुधिर, मज्जा, पीव, वमन, मांस, केश, हड्डी, चर्म आदि बीभत्स सामग्री रहती है, इसलिए उनकी देह अति अशुभतर है । ' उपर्युक्त आगम प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि नारकियों के शरीर में धातुएँ होती हैं और वे धातुएँ, महान अशुभनामकर्म के उदय के कारण अत्यंत दुर्गन्धयुक्त एवं सड़ी हुई अशुभ होती हैं। हम सभी स्वाध्यायी जनों की यह धारणा बनी हुई है कि वैकियिक शरीर धातुमय नहीं होता। जबकि आगम में वैकियिक शरीर की परिभाषाओं में यह कहीं भी लिखा हुआ नहीं मिलता कि वैकियिक शरीर सप्तधातुमय नहीं होता है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार ( २ / ३६) " अणिमा महिमा आदि आठ गुणों के ऐश्वर्य के संबंध से एक, अनेक छोटा बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है । वह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है, वह वैकियिक शरीर है। " मैंने पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज से जब इस संबंध में चर्चा की थी, तब उन्होंने कहा था कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा है कि वैकियिक शरीर सप्तधातुरहित होता है? अर्थात् वैक्रियिक शरीर के सप्तधातुरहित होने का प्रकरण आगम में नहीं मिलता। अतः हम सबको अपनी धारणा उपर्युक्त प्रमाणनुसार ऐसी बना लेनी चाहिए कि नारिकयों के शरीर में अत्यंत अशुभ रुधिर, हड्डी आदि धातुएँ स्वभाव से पाई जाती हैं। प्रश्नकर्त्ता श्री रवीन्द्र जैन, ललितपुर । " जिज्ञासा समवशरण की वापिकाओं एवं भामण्डल में सभी जीवों को अपने-अपने सात-सात भव कैसे दिखाई पड़ जाते हैं? चमत्कार कुछ समझ नहीं आता? समाधान- समवशरण में जीवों को, वहाँ स्थित वापिकाओं तथा भगवान् के भामण्डल में सात-सात भव दिखाई पड़ते हैं। श्री तिलोयपण्णत्ति गाथा ८१६ में इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524339
Book TitleJinabhashita 2009 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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