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कहें या निर्वाण पा लेना कहें। पूजा करनेवाला परिधि । का उपयोग होता है। इन सभी का आधार उस मूर्ति पर खड़ा है, जिसके केन्द्र में परमात्मा है। जब साधक | के प्रति समर्पण भाव है। पूजा का प्रारम्भ मूर्ति से होता ऊपर उठता जाता है उसकी मूर्ति विदा होने लगती है। है और इसका अंत, पूजा की पूर्णता, स्वयं का रूपान्तरण शायद इसलिए दिगम्बर मुनियों और आचार्यों के लिए है। यदि रूपान्तरण घटित नहीं हुआ है, तो समझिये मूर्ति-पूजन, छह आवश्यकों में नहीं हैं।
कि अभी हमारी पूजा अधूरी है। पूजा का आध्यात्मिक पूजा में भी ध्वनि का विज्ञान समझने जैसा है। अर्थ या रहस्य है, मूर्तिमान् की तरह बन जाने की एक पूजा में जैसे जैसे गहराई बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भीतर | प्रयोग-विधि। मूर्ति कह रही हैध्वनि की चोट से रूपान्तरण होना शुरू हो जाता है। जिस करनी से हम भये, अरिहन्त सिद्ध महान्। पूजा में ध्वनि का, संगीत व नृत्य का, कीर्तन का, सभी वैसी करनी तुम करो, हम तुम एक समान॥
सम्पादकीय टिप्पणी
प्रस्तुत लेख में पं० निहालचन्द्र जी ने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि मन्दिर, घण्टा, शिखर, घृतदीप आदि से क्या-क्या वैज्ञानिक घटनाएँ घटित होती हैं। किन्तु, उन्होंने यह नहीं बतलाया कि इन वैज्ञानिक घटनाओं के घटित होने के प्रयोग किस देश में, किन वैज्ञानिकों ने किये हैं और उनके सफल होने पर किन-किन देशों में किन-किन धर्मावलम्बियों के द्वारा ये वैज्ञानिक शैलीवाले मंदिर बनवाये गये हैं ? क्योंकि वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध निष्कर्ष सार्वजनिक हो जाते हैं, किसी एक देश या धर्म तक सीमित नहीं रहते। पं० निहालचन्द्र जी ने मंदिर के शिखर-कलश को एण्टिना की उपमा दी है। यहाँ यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि उस एण्टिना
माध्यम से. जो सन्देश या शभपरिणामोत्पादक तरंगें मन्दिर में भक्तों के पास आती हैं. वे कहाँ से टेलिकास्ट होती हैं? और क्या जैनेतर मन्दिरों, मस्जिदों और चर्चों में बने हुए शिखर (मीनारें, गुम्बद) भी वैसी ही एण्टिनाओं का काम करते हैं, और वैसे ही सन्देश या शुभपरिणामजनक तरंगों का ग्रहण-सम्प्रेषण करते हैं?
जैन मन्दिरों का जो शास्त्रोक्त मनोवैज्ञानिक आधार है, उसकी मनोवैज्ञानिकता निर्विवाद है। वह यह है कि जिनायतन में जो वीतरागता के प्रतीक जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये जाते हैं, उनके दर्शन सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में निमित्त बनते हैं, उनकी पूजाभक्ति में उपयोग केन्द्रित करने से परिणाम शुभ होते हैं, जिनसे अशुभ कर्मों का संवर एवं निर्जरा तथा शुभकर्मों का आस्रवबन्ध होता है। यह प्रक्रिया शुद्धोपयोग में सहायक होती है, अतएव परम्परया मोक्ष की साधक बनती है। इस प्रक्रिया में न कोई वर्तुल बनते हैं, न कोई गूंज होती है, न मन्दिर का शिखर-कलश एण्टिना का काम करता है। सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया एक जिनबिम्ब के द्वारा ही घटित होती है, भले ही वह श्रवणबेल-गोल की तरह खुले आकाश में स्थित हो।
आज कल यज्ञ-हवन में भी वैज्ञानिकता बतलायी जाने लगी है। जैनेतर पण्डितों के समान तेरहपन्थी दिगम्बर जैन पण्डित भी कहने लगे हैं कि यज्ञों से उत्पन्न होनेवाले धुएँ से वातावरण शुद्ध होता है। यदि ऐसा होता तो पृथ्वी पर बढ़ते हुए पॉल्यूशन को रोकने के लिए, दुनिया के सभी देश यज्ञ करवाने लगते। फिर दिगम्बरजैन तेरापन्थ आम्नाय में तो भगवान् की पूजा के लिए दीप और धूप जलाने का भी निषेध है, तब यज्ञ-हवन के अनिषेध का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पूजा के लिए अग्नि-प्रज्वलन में जो विज्ञान है, वह केवल सचित्तपूजा और जीवहिंसा का विज्ञान है।
___ तेरापंथ-आम्नाय में जिनपूजा में जिन द्रव्यों के प्रयोग का निषेध किया गया है, उनका वर्णन पं० नेमिचन्द्रकृत भट्टारकीय ग्रन्थ सूर्यप्रकाश (श्लोक ६६-७०) में है। (देखिये, पं० जुगलकिशोर मुख्तारकृत सूर्यप्रकाश-परीक्षा/ पृ.४६-६०)।
मन्दिर, घण्टा, शिखर, यज्ञ-हवन, घृतदीप आदि में जो भी वैज्ञानिकता बतलायी जाने लगी है, वह प्रज्ञावानों को तभी ग्राह्य हो सकती है, जब प्रयोगों के द्वारा उसे सिद्ध करके दिखाया जाय।
रतनचन्द्र जैन दिसम्बर 2008 जिनभाषित 21
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