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________________ गन्धोदक-माहात्म्य डॉ० श्रेयांसकुमार जैन वीतरागी जिनबिम्ब का सातिशय महत्त्व है, उसमें नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्र-चक्रपदवी-राज्याभिषेकोदकम्। प्राण प्रतिष्ठा एवं सूरिमन्त्र के द्वारा पवित्र पुण्य परमाणुओं | सम्यग्ज्ञान-चरित्र-दर्शनलता-संवृद्धि-सम्पादकम्, का संचय और अप्रतिहत शक्ति का जागरण हो जाता कीर्ति-श्री-जय साधकं तव जिन! स्नानस्य गन्धोदकम्।। है। इसीलिए जिनबिम्ब से मन्त्रपूत जल स्पर्श को प्राप्त | हे जिनेन्द्र देव! आपके स्नान का पवित्र जल हो कर विशिष्ट गुणों से युक्त हो जाता है, उसमें बिम्बगत | (गन्धोदक) मोक्षरूपी लक्ष्मी के हाथों से गृहीत असाधारण गुणों की प्राप्ति हो जाती है, यही कारण है कि जिनबिम्ब- जल है। वह पुण्यरूपी अंकुरो की उत्पत्ति में सहायक स्पृष्ट जल की गन्धोदक संज्ञा पड़ गयी है। इसकी आचार्यों | है। नागेन्द्र, देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के राज्याभिषेक को ने विशिष्ट महिमा बतलायी है। आचार्य जिनसेन स्वामी | सम्पन्न करानेवाला है। यह गन्धोदक सम्यग्दर्शन ज्ञानमहापुराण में लिखते हैं | चारित्ररूपी लता की संवृद्धि करानेवाला है तथा यश, माननीया जगतामेकपावनी।। लक्ष्मी एवं जय का साधक है। साव्याद् गन्धाम्बु-धारास्मान् या स्म व्योमापगायते॥ इस प्रकार जिनेन्द्र प्रभु के तन से स्पर्शित मंत्रपूत ___ अर्थात् जो मुनीन्द्रों के लिए भी माननीय है तथा | जल की विशेषताओं को दर्शाया गया है। यह पवित्र संसार को पवित्रता प्रदान करने में अनुपम अद्वितीय है, | जल वन्दन करने का विधान है। शरीर के उत्तमांग में वह आकाश गंगा के समान प्रतीत होनेवाली गन्धाम्बुधारा | ही इसको लगाना श्रेयस्कर है। वर्तमान में देखा जाता हमारी रक्षा करे। | है कि गन्धोदक को अर्द्धशरीर में लगाते हैं। कुछ लोग गन्धोदक की अतिशयकारी महिमा का दर्शन | तो गन्धोदक को पी जाते हैं या ऊपर छिड़कते हैं, जिससे मैनासुन्दरी के जीवन में देखने को मिला कि उसने | वह जमीन पर गिरता है और पैरों में पड़ता है। इससे यन्त्राभिषेक के जल से अपने कोढ़ी पति की काया कञ्चन | बहुत दोष लगता है। अतएव मैं बताना चाहता हूँ कि के समान बना ली। धन्य है प्रभुतन-स्पर्शित जल, जो | शास्त्रों में जो गन्धोदक ग्रहण करने की विधि है, उसी अनुपम है, अखण्ड कीर्तिकारक है इसकी महिमा में | प्रकार गन्धोदक ग्रहण करें और उन्हीं अवयवों में गन्धोदक कहा है लगाना चाहिए, जिनमें लगाने का विधान शास्त्रों में पाया कीर्तिक्षेमकरं महाबलकरं स्वारोग्यवृद्धिकरम्, । जाता है। दीर्घायुष्यकरं सदासुखकरं भूपेन्द्रसम्पत्करम्। गन्धाम्भः सुमहदंघ्रियुग-संस्पर्शात्पवित्रीकृतम् विश्व-व्याधिहरं विषज्वरहरं निर्वाण-लक्ष्मीकरम्। । देवेन्द्रादि-शिरो-ललाट-नयन-न्यासोचितं मंगलम्। सर्व-कर्महरं वरं तव जिन! स्नानस्य गन्धोदकम्।। तेषां स्पर्शनतस्त एव सकलाः पूजा अभोगोचितम् हे जिनेन्द्र! आपके अभिषेक का गन्धोदक कीर्ति, भाले नेत्रयुगे च मूनि तथा सर्वैर्जनैर्धार्यताम्॥ कल्याण, महाबल, निर्दोष, आरोग्य, दीर्घायु तथा नित्यसुख अरिहन्त भगवान् के चरणों में चढ़ाया हुआ शुद्ध को करनेवाला है। हे प्रभो! चक्रवर्तियों की सम्पत्ति का | प्रासुक जल अरिहन्तबिम्ब के चरणस्पर्श होने से पवित्र कारण भी वही आपका पावन अभिषेक जल है। यह | हो जाता है। अतएव देवेन्द्रादि के भी ललाट, मस्तक, विश्व की आधि-व्याधि समूह का हर्ता, विष एवं ज्वरों | नेत्र में धारण करने योग्य है, उसके स्पर्श करने मात्र का विनाशक और मोक्षलक्ष्मी का प्रदाता है। हे नाथ! | से ही पूर्व में अनेक जन पवित्र हो चुके हैं। इसलिए अधिक कहने से क्या लाभ? यह सम्पूर्ण कर्मों का हरण | उस गन्धोदक को भव्यजीव नित्य नयनद्वय, ललाट और करनेवाला तथा संसार में उत्तम है। मस्तक पर भक्ति से धारण करें। ____इसी प्रकार की महत्ता आचार्य माघनन्दिकृत अभिषेक आचार्य माघनन्दि ने भी गन्धोदक लगाने की विधि पाठ में दर्शायी गई है, वहाँ कहा गया है पर प्रकाश डाला है। गन्धोदक को ललाट और नयनयुगल मुक्ति-श्री-वनिता-करोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकम्, । में लगाने का कथन यथार्थ है। 14 दिसम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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