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________________ अलीए वा॥' (सन्मतितर्क १/२८ तथा जयधवला १।। उत्तर- विद्वान् प्राश्निक के उक्त प्रश्न का उत्तर २३७ पुरातन संस्करण ज० ध० १/२५७)। इस प्रकार है___अर्थात् अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह | नयदर्पण में लिखा है कि प्रमाण, नय, एकान्त नय सच्चा है और यह नय झूठा है,' इस प्रकार का | तथा अनेकान्त ये चारों सम्यक् ही होते हों, ऐसा नहीं विभाग नहीं करते हैं। इसलिए सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र | है, मिथ्या भी होते हैं। सम्यक् प्रमाण, मिथ्या प्रमाण, शास्त्री कहते हैं कि 'किसी एक नय का विषय उस | सम्यक् नय, मिथ्या नय, सम्यग् अनेकान्त, मिथ्या नय के प्रतिपक्षी दूसरे नय के विषय के साथ ही सच्चा | अनेकान्त, सम्यगेकान्त तथा मिथ्या एकान्त, ये ८ रूप है।' (जयधवल ९/२३३ विशेषार्थ) होते हैं--- (नयदर्पण, पृ. ४५ आदि)। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने जो व्यवहार को अभूतार्थ | श्री भट्टाकलंकदेव राजवार्तिक में लिखते हैंकहा है वह व्यवहार की अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चय | अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त की अपेक्षा से कहा है। 'व्यवहार अपने अर्थ में उतना | इति। (रा.वा. १/६/७ पृष्ठ ३५) ही सत्य है जितना कि निश्चय।' (वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ 'सम्यक और मिथ्या के भेद से अनेकान्त दो प्रकार पृ० ३५४-५५ ले. पं० फलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री)।| का होता है।' (स्व. पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य)। आचार्य पद्मनन्दि ने पं. पंचवि. ११/११ में 'व्यवहारनय | एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक पूज्य है' कहा है। स्मरण रहे कि व्यवहार से निरपेक्ष विरोधी धर्मों को ग्रहण करनेवाला सम्यक् अनेकान्त है निश्चय भी मिथ्या है, ऐसी बात एक मात्र जैन शासन तथा वस्तु को तत् अतत् आदि स्वभाव से शून्य वचनही कहता है। कहा भी है विलास मिथ्या अनेकान्त है। सम्यक अनेकान्त प्रमाण मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः। । कहलाता है तथा मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास कहलाता निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥ | है। (रा.वा. वही, पृ. ३५ एवं २८७ भाग १)। अतः हे भव्यात्मन्! "मात्र एक कुन्दकुन्द पर (१) प्रत्येक पदार्थ कथंचित् अस्ति रूप (स्वरूप समस्त आचार्यों की बलि नहीं दी जा सकती।" (स्व. | चतुष्टय की अपेक्षा) है तथा, वही कथंचित् नास्तिरूप पं० कैलाशचन्द्र)। (पररूपादित चतुष्टय की अपेक्षा) है। ___ इस प्रकार उक्त तथ्यों के प्रकाश में समयसार (२) जीव कथंचित मूर्त है (कर्मबन्ध की अपेक्षा) ग्रन्थ की परमपूज्य जयसेन स्वामी रचित तात्पर्यवृत्ति की | तथा कथंचित् अमूर्त है (स्वभाव की अपेक्षा) कहा भी १३वीं गाथा 'ववहारोऽभूदत्थो' की व्याख्या में प्रतिपादित है- “आत्मा बन्धपर्यायं प्रत्येकत्वात् स्यान्मूर्तः, तथापि नयचतुष्टय रूप दो प्रकार के व्यवहार तथा दो प्रकार | ज्ञानादि-स्वलक्षणापरित्यागात् स्यादमूर्तः।" (रा० वा०२/ निश्चय के प्रतिपादन में चारों ही नय अपने-अपने | ७/२५/११७, हिन्दी पृ० ३४७)। स्थान पर भूतार्थ ही हैं और वास्तविक सम्यग् अनेकान्त सर्वार्थसिद्धि में भी कहा- कर्मबन्धपर्यायापेक्षया में वे सर्वगृहीत हैं। उन चारों नयों को नय माननेवाला | तदावेशात् स्यान्मूर्तः। शुद्धस्वरूपापेक्षया स्यादमूर्तः (स० सम्यग्ज्ञानी है, परन्तु जो उन चार नयों में से मात्र दो | सि० २/७/ प्रकरण २६९ पृ० १४४)। को ही भूतार्थ मानता है, शेष को कथंचित भतार्थ रूप अब मिथ्या अनेकान्त के भी उदाहरण देखिएसे स्वीकार नहीं करता, वह एकान्त नामक मिथ्यात्व (१) कोई कोई समन्वयवादी कहते हैं कि "मन दोष से दषित है, ऐसा समझना चाहिए। इसी तरह कथंचित् प्रधान का विकार है (सांख्यदर्शन की दृष्टि निमित्त-नैमित्तिक भाव को मिथ्या अनेकान्त माननेवाला | से) तथा कथंचित् पुद्गल का विकार है (जैनों की दृष्टि तथा अविनाभाव संबंध में ही कारण-कार्य विधान | से)," ताकि दोनों खुश हो जाएँ। ऐसा 'कथंचिद्वाद'एकान्ततः माननेवाला भी मिथ्यात्वी एकान्तवादी जानना | स्याद्वाद या अनेकान्तवाद मिथ्या अनेकान्त है। चाहिए। प्रमाण के लिए आगम भरा पड़ा है। (२) ये ही समन्वयवादी बहुत से जीवों का प्रश्न- अनेकान्त वास्तव में सम्यक् अथवा मिथ्या | जातिस्मरणादि आज भी प्रत्यक्ष देखकर कहते हैं कि होता है या नहीं? | जीव का कथंचित् पुनर्जन्म होता है तथा किन्हीं-किन्हीं अब दिसम्बर 2008 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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