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________________ यह 'आशिका' शब्द न तो जैनशास्त्रों में मिलता है, न संस्कृत, हिन्दी कोशों में। 'मूलाचार' में 'आसिका' शब्द आया है, किन्तु यह 'समाचार' का एक भेद है और इसका अर्थ है- 'रहने की जगह से मुनि का गुरु से पूछकर निकलना।' (मूलाचार / गा. १२६)। वस्तुतः देवपूजा के प्रकरण में 'आशिका' शब्द 'शेषा' अथवा 'शेषिका' शब्द का बिगड़ा हुआ लोकप्रचलित रूप है। आप्टे-संस्कृत-हिन्दी-कोश में शेषा का अर्थ इन शब्दों में बतलाया गया है- "फूल तथा अन्य चढ़ावा, जो मूर्ति के सामने प्रस्तुत किया जाता है और उसके (देवमूर्ति के) पुण्य-अवशेष के रूप में पूजा करनेवालों में बाँट दिया जाता है।" एम. मोनिअर विलिअम्स की संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी में शेषा का अर्थप्ररूपण इस प्रकार -"the remains of flowers or other offerings made to an idol and afterwards distributed amongst the worshippers and attendents."( Page 1089). अर्थात् देवप्रतिमा को अर्पित की गयी पूजासामग्री ही 'शेषा' या 'शेषिका' कहलाती है। अन्य धर्मों में इसे देवता का प्रसाद भी कहते हैं। पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने इसे 'जिनेन्द्र भगवान् की आशिषिका' शब्द से अभिहित किया है। (आदिपुराण / भा. २ / पर्व ३९ / श्लोक ९७ / पृ. २७८)। देव को अर्पित सामग्री को 'शेषा' बतलाते हुए दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में लिखा है ततो वच:-कायमन:-विशुद्धः प्रविश्य राजा जिनदेवगेहम्। प्रियासमेतः प्रणिपत्य भक्त्या जग्राह शेषां जिनदेवतायाः॥ अनुवाद- "अभिषेक और पूजन के बाद जब जिनबिम्ब को स्नानपीठ से लाकर मूलपीठ पर स्थापित कर दिया गया, तब मन-वचन-काय से विशुद्ध राजा वरांग ने रानियों के साथ गर्भगृह में प्रवेश किया और जिनबिम्ब को भक्तिभाव से प्रणाम कर जिनदेवता की शेषा ग्रहण की।" जटासिंहनन्दी आगे वरांगचरित (२३/१०२) में लिखते हैं जिनेन्द्रपादाम्बुरुहार्पणेन प्रसिद्धनामग्रहणेन भूयः। पूतां च पुण्यां पुरुसिद्धशेषां वसुन्धरेन्द्रो निदधौ स्वमूनि॥ अनुवाद- "जिनेन्द्र के चरणकमलों में अर्पित होने से तथा जगत्प्रसिद्ध पंचपरमेष्ठी के नामोच्चरण से जो पवित्र तथा पुण्यबन्ध की हेतु थी, उस पुरु (ऋषभदेव) आदि सिद्धों की शेषा को राजा वरांग ने पुनः अपने मस्तक पर धारण किया।" इस प्रकार जिनेन्द्र के चरणों में अर्पित अक्षत, पुष्पमाला आदि पूजासामग्री ही शेषा, शेषिका, आशिषिका या आशिका है। यह बात आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण (भाग २) के निम्नलिखित पद्यों से और स्पष्ट हो जाती है महात्म्यप्रच्युतिस्तावत्कृत्वाऽन्यस्य शिरोनतिम्। ततः शेषाद्युपादाने स्यान्निकृष्टत्वमात्मनः॥ ४२/२०॥ विद्विषन् परपाषण्डी विषपुष्पाणि निक्षिपेत्। यद्यस्य मूनि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः॥ ४२/२१॥ वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपेद्यदि मोहने। ततोऽयं मूढववृत्तिरुपेयादन्यवश्यताम्॥ ४२/२२॥ तच्छेशाषीर्वचः शान्तिवचनाद्यन्यलिङ्गिनाम्।। पार्थिवैः परिहर्त्तव्यं भवेन्यक कलतान्यथा॥ ४२/२३॥ जैनास्तु पार्थिवास्तेषामहत्पादोपसेविनाम्। तच्छेषानुमतिया॑य्या यतः पापक्षयो भवेत्॥ ४२/२४॥ 4 सितम्बर 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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