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________________ "यन्जिनबिम्बारोपितं सद्विच्छायीभूतं विगन्धिसञ्जातं दृश्यमानं च नि:श्रीकतया न भव्यजनमन : प्रमोदहेतुः तन्निर्माल्यं ब्रुवन्ति बहुश्रुताः।" (अभिधानराजेन्द्रकोश / भा.४ / पृ. २०८४)। अनुवाद- "जिनबिम्ब पर आरोपित (चढ़ाया गया) जो पुष्पादि द्रव्य निष्प्रभ, सुगन्धरहित तथा देखने में सौन्दर्य-विहीन हो जाने से भव्यजनों के मन के लिए प्रमोद का हेतु नहीं रहता, उसे बहुश्रुतजन निर्माल्य कहते हैं।" आचार्य वसुनन्दी ने शरीर से स्पृष्ट अर्थात् भुक्तोज्झित पुष्पादि को निर्माल्य बतलाया है "निर्माल्यसुमनस इवोपभोगितपुष्पनिचयमिव धनं गोऽश्वमहिष्यादिकं कनकं सुवर्णादिकं ताम्यां समृद्धमाढ्यं धनकनकसमृद्धं बान्धवजनं स्वजनपरिजनादिकं परित्यजन्ति गृहवासविषये विरक्तचित्ताः सन्तः। यथा शरीरसंस्पृष्टं पुष्यादिकमकिञ्चित्करं त्यज्यते तथा धनादिसमृद्धमपि बन्धुजनं धनादिकं चाथवा गृहवासं चेति सम्बन्धः परित्यजन्तीति।" (मूलाचार / आचारवृत्ति / गा. ७७६)। अनुवाद- "गृहवास से विरक्तपुरुष गो, महिष, अश्वादि धन तथा सुवर्णादि से समृद्ध स्वजन-परिजनों को उसी प्रकार त्याग देते हैं, जैसे लोग निर्माल्य पुष्पों अर्थात् उपभुक्त पुष्पों को त्याग देते हैं। तात्पर्य यह कि जैसे शरीर से स्पृष्ट (उपभुक्त) पुष्पादि अकिंचित्कर हो जाने से त्याग दिये जाते हैं, वैसे ही धनादिसमृद्ध बन्धुजनों को अथवा गृहवास को विरक्तचित्त पुरुष त्याग देते हैं।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि न केवल देवता को अर्पित किये गये (देवोच्छिष्ट) पुष्पादि निर्माल्य कहलाते हैं, अपितु मनुष्य द्वारा उपभुक्त पुष्पादि भी निर्माल्य कहलाते हैं। श्रृंगारतिलक (१०) में भी भुक्तोज्झित (भोगकर छोड़ी गई) पुष्पमाला को निर्माल्य संज्ञा दी गयी है-"निर्माल्योज्झितपुष्पदामनिकरे का षट्पदानां रतिः" (आप्टे-संस्कृत-हिन्दी कोश) = निर्माल्य अर्थात् भोगकर त्यागी गयी पुष्पमाला में भौंरों की क्या रुचि हो सकती है? __ठौने पर चढ़ाये गये आवाहनादि के संकल्पपुष्प भी पूज्य 'जिन' को लक्ष्य करके ही चढ़ाये जाते हैं, अतः वे भी देवोच्छिष्ट हो जाने से अथवा दूसरी बार उपयोग के योग्य न रहने से निर्माल्य हो जाते हैं। इस तरह ठौने पर चढ़ाये गये संकल्पपुष्पों और द्रव्यार्पण-थाली में प्रक्षिप्त किये गये पुष्पादि में कोई अन्तर नहीं रहता। अत: संकल्पपुष्पों को ठौने पर चढ़ाया जाना युक्तिसंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त जिनेन्द्रदेव की पूजा की क्रिया पूजा (आवहनादि) के संकल्प से कई गुना श्रेष्ठ होती है। अत: पूजा के लिए अर्पित किये गये पुष्प संकल्पपुष्पों से हीन नहीं हो सकते, अपितु कई गुना पवित्र और उत्कृष्ट होते हैं। इसलिए जिस थाली में पूजा के पुष्प अर्पित किये जा सकते हैं, उसमें संकल्पपुष्पों के अर्पण से तो संकल्पपुष्पों की महिमा में वृद्धि ही हो सकती है। हम देखते हैं कि जो द्रव्य जिनेन्द्र को अर्पित 'नहीं किया गया, वह यद्यपि निर्माल्य नहीं होता, तथापि उसमें वह गुण नहीं होता, जो निर्माल्य द्रव्य में आ जाता है। निर्माल्यद्रव्य जिनेन्द्रदेव के पादपंकज का स्पर्श पाकर पवित्र और पुण्यास्रव का हेतु बन जाता है, इसीलिए वह 'शेषा' (आशिका) के नाम से ग्रहण किया जाता है, जब कि अनिर्माल्य द्रव्य शेषा के नाम से मस्तक पर धारण नहीं किया जाता। (देखिए, आगे 'वरांगचरित' से उद्धृत श्लोक २३/१०२)। इसी प्रकार जिस पात्र में पूजाद्रव्य अर्पित किया जाता है उसमें संकल्पपुष्पों के क्षेपण से उनमें भी वही गुण आना अनिवार्य है, जो अर्पित किये गये पूजाद्रव्य में आ जाता है। अतः सकल्पपुष्पों के क्षेपण हेतु ठौने का प्रयोग युक्तिसंगत नहीं है। निर्माल्य ही शेषा (आशिका) है जैनपूजापाठ-संग्रहों में जिनवर की आशिका लेने का उपेदश दिया गया है श्री जिनवर की आशिका, लीजै शीश चढ़ाय। भव भव के पातक कटैं, दुःख दूर हो जाय॥ सितम्बर 2008 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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