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________________ जिज्ञासा - समाधान प्रश्नकर्त्ता - रवीन्द्र कुमार जैन दमोह | जिज्ञासा - विजयार्ध पर्वत पर कैसी व्यवस्था है, विद्याधर लोग कैसे रहते हैं आदि के बारे में विस्तृत रूप से समझायें ? समाधान- विजयार्ध पर्वत के संबंध में तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4, राजवार्तिक 3/10, सर्वार्थसिद्धि, महापुराण सर्ग 18, 19, श्री धवला पु. 9, तत्त्वार्थमंजूषा आदि में जानकारी दी गई है। उनके आधार से यहाँ समाधान दिया जा रहा है। भरत क्षेत्र के मध्य में उत्तम रत्नों से रमणीय रजतमय विजयार्ध नामक पर्वत है, जो पूर्व से पश्चिम तक लम्बा । चक्रवर्ती की यहाँ तक आधी विजय होती है, अतः इसका नाम विजयार्थ है । इसकी चौड़ाई 50 योजन, ऊँचाई 25 योजन तथा नींव 64 योजन है। इन पर्वतों पर तलहटी से दस योजन ऊपर, दोनों ओर 10-10 योजन चौड़ी तथा पर्वत के बराबर लम्बी दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं। जिनमें दक्षिण में 50 तथा उत्तर दिशा में 60 विद्याधरों के नगर हैं। इन नगरों से 10 योजन ऊपर व्यंतर देवों के निवास तथा एक अकृत्रिम में इस प्रकार कहा हैजिनालय है । विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले मनुष्य भी विद्याधर होते हैं। सब विद्याओं को छोड़कर संयम को ग्रहण करनेवाले भी विद्याधर होते हैं। क्योंकि विद्याविषयक विज्ञान उनमें पाया जाता है। जिन्होंने विद्यानुवाद को पढ़ लिया है, वे भी विद्याधर हैं, क्योंकि उनके भी विद्याविषयक ज्ञान पाया जाता है। विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले विद्याधर यद्यपि भरतक्षेत्र के मनुष्यों के समान षट्कर्मों से ही आजीविका करते हैं, परन्तु प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं को धारण करने के कारण विद्याधर कहलाते हैं । इनको कुछ विद्यायें तो कुल परम्परा से ही प्राप्त हो जाती हैं तथा कुछ विद्यायें यत्नपूर्वक आराधना से प्राप्त होती हैं। इनमें रोहिणी आदि 500 महाविद्यायें होती हैं और अंगुष्ठप्रसेनादि 700 लघु विद्यायें होती हैं। विद्याधरों की उत्कृष्ट आयु 1 करोड़ पूर्व तथा जघन्य आयु 100 वर्ष होती है। शरीर की ऊँचाई 500 धनुष से 7 हाथ तक होती है (उत्कृष्ट एवं जघन्य ) । Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा विजयार्ध पर्वत पर ऋतु परिवर्तन होता है। निजसेना तथा परसेना के युद्ध का भय, अतिवृष्टि तथा रोग जनित बाधायें नहीं होतीं । यहाँ चारित्र से विभूषित मुनिराजों का बहुसंख्या में सदैव विहार पाया जाता है। यहाँ चतुर लोग विवाह आदि उत्सवों में अरिहंत देव की तथा दुःख आदि आ पड़ने पर उसके निवारणार्थ जिनालय में जिनेन्द्रदेव की ही पूजा करते हैं। निरंतर जिनवाणी के पठनपाठन में सभी लगे रहते हैं । यहाँ मिथ्यादेवों के कहीं भी मंदिर नहीं हैं, तथा वेदकथित धर्म का अभाव है। सर्वत्र तीर्थंकरों के ही जिनालय हैं, तथा एकमात्र जैनधर्म ही प्रवर्तता । यहाँ के मनुष्य धर्मपालन कर स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त करते हैं । यहाँ गुणस्थान 1 से १४ तक, अर्थात् सभी पाये जाते हैं । काल ( पहले से छठे काल तक) परिवर्तन तथा प्रलय यहाँ कभी नहीं होता है । प्रश्नकर्त्ता श्री नितिन वसंतराव वसमत । जिज्ञासा - असातावेदनीय का उत्कृष्टउदय काल कितना है ? समाधान- इस प्रकरण पर श्री धवला पु. १५ /६२/२ 'असादस्स जहण्णएण एग समओ, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोपमाणि अंतोमुहुत्तमहियाणि । कुदो। सत्तम पुढवि पवेसादो पुव्वं पच्छा च असादस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालमुदीरणुवलंभादो ।" 44 अर्थ- असातावेदनीय की उदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः अंतर्मुहूर्त से अधिक तेत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि सातवीं पृथ्वीं में प्रवेश करने से पूर्व और पश्चात् अंतर्मुहूर्तमात्र काल तक असातावेदनीय की उदीरणा पाई जाती है। जिज्ञासा किमिच्छक दान क्या होता है और इसे कौन कैसे देता है? समाधान- किमिच्छकदान चक्रवर्ती के द्वारा दिया जाता है, जो वह कल्पद्रुम पूजा के अवसर पर देता है । सागारधर्मामृत 2 / 28 में इस प्रकार कहा है किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्य यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽर्हद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ॥ 2 / 28 ॥ अर्थ- सभी जीवों की इच्छा के अनुसार दान के For Private & Personal Use Only सितम्बर 2008 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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