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________________ देख लो रावण कौरव कंस' । आचार्य भगवंत कहते । बनता । तप धर्म से शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों लाभ हैं, जहाँ एक ओर अनशन, उपवास, एकासन भूख से कम खाना आदि से शरीर स्वस्थ रहता है, तो मन को शांति मिलती है और स्वस्थ शरीर में ही धर्म ठहरता है और धर्मात्मा व्यक्ति ही सुख-दुख में, महल मरघट में, सोना मिट्टी में, प्रशंसा - निंदा में समभाव धारण कर त्याग के आलोक में आकिञ्चन्य-धर्म को उपलब्ध हो पाता है, कि मेरा इस जगह में मेरी आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी मेरा नहीं है और आकिञ्चन्य व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, क्योंकि जब तक प्राणी 'पर' को 'स्व' मान रहा है, तब तक 'स्व' द्रव्य के दर्शन नहीं और आत्म साक्षात्कार के बिना ब्रह्म में रमण ब्रह्मचर्य कैसे हो सकता है । ब्रह्मचर्य ज्यादा कठिन नहीं है, बस इतना ही है कि श्रावक अपने घर में रहे अर्थात् अपनी पत्नी को छोड़कर शेष सभी माता बहिनें को उस दृष्टि से देखे, जिसमें काम का नहीं राम का वास रहता है, और साधक अपने में रहे, अपने को देखे और अपने को ही भोगे । हैं इस संसार नाम की भूख अच्छी नहीं, ज्ञान का, पूजा प्रतिष्ठा का, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के सौंदर्य का अहंकार ठीक नहीं, क्योंकि ये सब क्षणभंगुर हैं। एक भूकंप के झटके में अच्छे-अच्छे महल धराशाई हो जाते हैं। मनुष्य कीर्ति के लिये मान करता है, पर ध्यान रहे कीर्ति के दास सब हैं, पर कीर्ति किसी की दासी नहीं है। अतः अहंकार को तज कर आर्जव धर्म के आलोक में जीवन को सरल बनाना चाहिये। क्योंकि मायाचारी करके किसी को धोखा देकर, किसी को ठग कर हम मन का धन तो कर सकते हैं, पर ध्यान रहे उस धन को उपभोग करने की योग्यता प्राप्त नहीं कर सकते। अतः जीवन को कुटिलता के दुष्चक्र से निकाल कर, शौच-धर्म को समझना चाहिये, जो कि हमें हृदय की पवित्रता की ओर संकेत करता है । जिस प्रकार से गंदे पात्र में दूध नहीं ठहरता, इस प्रकार अपवित्र हृदय में धर्म नहीं ठहरता। आकाश में जब तक घने काले बादल रहते हैं, तब तक सूर्य का दर्शन नहीं होता। इसी प्रकार जब तक हमारा हृदय क्रोध, मान, माया लोभ से मलिन है, तब तक उत्तम सत्य - धर्म प्रकट नहीं हो सकता। क्योंकि प्राणी चारों कषायों के वशीभूत होकर असत्य बोलता है एवं अपने तथा दूसरों के प्रति अनिष्ट कार्य करता है । अतः लोभ वृत्ति छोड़ते हुए आकांक्षाओं के असीम आकाश की उड़ान स्थगित कर यथार्थ के धरातल पर जीवन के परम सत्य को समझना चाहिये कि संसार में सब मिट्टी के खिलौने हैं, जो एक दिन मिट्टी में मिल जाते हैं, पर आत्मा शाश्वत है, अजर अमर है और आत्मा की अमरता ही परम सत्य है । इस सत्य को पाने के लिये आचार्य भगवंत कहते हैं बिना संयम के आत्मा से परमात्मा की यात्रा दुर्लभ हैं, जिस प्रकार बिना ब्रेक के गाड़ी और बिना लगाम के घोड़ा अपने मालिक को मंजिल पर सुरक्षित नहीं पहुँचा सकते, ठीक इसी प्रकार बिना संयम के मनुष्य स्वर्गादिक सुखों को प्राप्त नहीं कर सकता, मुक्ति तो दूर की बात है। मनुष्य पंच इंद्रियों की गुलामी के कारण असंयम रोग से पीड़ित है और एड्स जैसी भयानक बीमारियों से घिरा है, ये सब धार्मिक अशिक्षा एवं भारतीय मूल्यों की उपेक्षा का परिणाम है। अतः सद्गुरुओं के सान्निध्य में संयम का मूल्य समझते हुये उत्तम तप धर्म को अपनाना चाहिये, क्योंकि बिना ताप के दूध घी नहीं 24 सितम्बर 2008 जिनभाषित इसी में जीवन की सार्थकता है। अतः क्षमा से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से मायाचार को और शौच-धर्म से लोभ को जीतते हुये, सत्य के आलोक में संयम प्राप्त कर, उत्तम तप त्याग द्वारा आत्म शोधन कर आकिञ्चन्य होते हुए, ब्रह्मचर्य को प्राप्त करना चाहिये । क्योंकि यही मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ उपयोग है। पर्व के अंत में क्षमावाणी की सार्थक परम्परा को भी जीवित रखना चाहिये । सामूहिक भोज रखकर हम क्षमावाणी नहीं मना सकते | अरे मित्रों से तो रोज मिलते हैं, मित्रों को तो रोज खिलाते हैं, अपनों से, तो सभी प्रेम करते हैं, आज, तो उनसे मिलने की बारी है, जिन्हें हम शत्रु समझतें हैं, जिन्हें पराया मानते हैं, इसी में पर्व की सार्थकता है। कारण मानवमन में सद्भावों का विकास ही पर्व का ध्येय है । अतः हम सब सद्भावों के परम शिखरों को छूते हुए परम सुख को प्राप्त हों, इसी सद्भावना साथ --- के सत्य से साकार हो जीवन सभी का, बढ़े सभी प्रगति के नूतन पथों पर । मङ्गलमयी सद्भावना है, मम यही शुभकामना है ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल पिसनहारी जबलपुर - 3 www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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