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________________ 3. यज्ञोपवीत धारण करने के पूर्व में भी व्रती । 9. अनेक प्रतिष्ठा पाठों में पूजकों को पूजन के व्यक्ति यज्ञोपवीत के बिना भी व्रतों की पालना करते समय यज्ञोपवीत धारण कराने का विधान पाया जाता हए रह रहे थे और जिनेन्द्र पूजादि धार्मिक क्रियाएँ कर | है। वे पूजक पूर्व में ही मूलगुण अथवा व्रतधारण किए रहे थे। अतः यज्ञोपवीत धारण करना व्रतों के लिए अथवा हए रहते हैं, उन्हें पूजा के समय किन व्रतों के उपलक्ष्य दान पूजा करने के लिए अनिवार्य चिह्न सिद्ध नहीं होता। | में यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है? संभवतः देवताओं 4. आदिपुराणकार ने यज्ञोपवीत का उपदेश तीर्थंकर | के द्वारा मुकुट, कुंडल, माला, कंगन, वाजूबंद, कंडोरा, भगवान् के द्वारा नहीं कराया, क्योंकि तीर्थंकर भगवान् | यज्ञोपवीत आदि आभूषण पहने जाते हैं, उन्हीं के अनुरूप ने ऐसा उपदेश दिया ही नहीं। अतः यज्ञोपवीत का विधान | मनुष्य भी जिनेन्द्र पूजा के समय विभिन्न वस्त्राभूषण द्वादशांगवाणी का अंग नहीं है। ब्राह्मणवर्ण की स्थापना पहन कर उत्साह पूर्वक पूजा करते हैं। यज्ञोपवीत एक और उन्हें यज्ञोपवीत धारण कराने की व्यवस्था चक्रवर्ती | आभूषण भी है। भरत ने की, जो यद्यपि मनु होने के नाते सामाजिक | 10. कुंडलपुर क्षेत्र पर यज्ञोपवीत पहने देवताओं व्यवस्था के लिए तो अधिकृत थे, किन्तु उन्हें धार्मिक की कुछ मूर्तियाँ जिनेन्द्र भगवान् के सेवक के रूप में क्षेत्र में नई स्थापनाएँ करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। हैं। कुछ लोग उन मूर्तियों को यज्ञोपवीत की सिद्धि के 5. यद्यपि भरत जी ने व्रती व्यक्तियों की पहिचान | रूप में प्रस्तुत करते हैं। हम यह सामान्य एवं सर्वमान्य के लिए उन्हें यज्ञोपवीत धारण करने का विधान बनाया, | सिद्धांत जानते हैं कि देवता व्रती नहीं होते और यज्ञोपवीत किंतु उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि बिना यज्ञोपवीत | का व्रती के चिन्ह के रूप में उद्भव हुआ है। अतः के श्रावक दान पूजा का अधिकारी नहीं होता है। यज्ञोपवीत | यह यज्ञोपवीत, जो वे देवता पहने हैं, आभूषण ही हैं के बारे में दी गई ऐसी व्यवस्थाएँ पश्चाद्वर्ती हैं और व्रत-सूत्र नहीं हो सकता है। मनगढंत हैं। 11. वास्तव में यज्ञोपवीत को व्रती श्रावक का 6. भरत द्वारा निर्मित ब्राह्मणवर्ण के बारे में तीर्थंकर | अनिवार्य चिन्ह मानना और उसके बिना उसको दान भगवान ऋषभ देव ने चक्रवर्ती भरत को जो विचार दिए | पूजा का अधिकार नहीं होने की बात कहना न आगमवे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। भगवान् ने बताया कि चतुर्थकाल | सम्मत है और न तर्कसम्मत। तथापि यदि किसी व्यक्ति तक, तो व्रती ब्राह्मणों का जीवन सात्विक रहेगा, किन्तु | को यज्ञोपवीत पहनना रुचिकर लगता है, तो वह पहने। आगामी काल में दोष उत्पन्न करनेवाला हो जायेगा। पंचम | यज्ञोपवीत पहनने से उसमें कोई अपात्रता नहीं आती और काल में ये लोग अपनी उच्च जाति के अहंकार के | न उसके सम्यग्दर्शन का घात होता है। अतः यज्ञोपवीत वश में होकर मोक्षमार्ग के विरोधी हो जायेंगे। का ऐसा निषेध भी उपयुक्त नहीं हैं और न उसकी 7. श्री भरत जी ने स्वयं तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव | अनिवार्यता का उद्घोष करते हुए, उसके अभाव में श्रावक के समक्ष अपनी गाथा कहते हुए यह स्वीकार किया है | को दान-पूजा के लिए अपात्र कहना ही उपयुक्त है। कि हे प्रभु! मैंने धर्मशासन नायक आपके विद्यमान रहते | हम यज्ञोपवीत के बारे में पक्ष के अत्याग्रह को आगम हुए ब्राह्मणवर्ण की स्थापना एवं यज्ञोपवीत का विधान करके | के विधान पर हावी नहीं होने दें और समीचीन तर्क मूर्खता का कार्य किया है। (आदि-पुराण पर्व ४१ श्लोक | एवं अनुमान का सहारा लेते हुए आगम के आलोक 32 पृष्ठ 319)। श्री भरत जी की यह स्पष्टोक्ति यज्ञोपवीत | मे तत्त्व की खोज कर अपनी श्रद्धा को निर्मल बनाएँ। की धार्मिक वैधानिकता पर गहन प्रश्नचिन्ह लगा रही है। समर्थन और निषेध के दोनों अतिवादों से बचकर 8. बाह्यचिन्ह कभी भी अंतरंग परिणामों का | यदि हम निष्पक्ष अनेकांतात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए नियामक रूप से सूचक नहीं होता है। यदि यज्ञोपवीत | धर्म की अवमानना से डरते हुए धर्म की समीचीन प्रभावना को अंतरंग व्रतों का नियामक रूप से सूचक मानेंगे, | में अग्रसर रह सकें, तो हम स्वपरकल्याण की साधना तो यज्ञोपवीत की व्यवस्था से पहले व्रतियों का अस्तित्व कर पायेंगे। कैसे रहा? यज्ञोपवीत के बिना स्त्रियों में एवं तिर्यंचों लुहाड़िया सदन, जयपुर रोड, में व्रतों का अस्तित्व कैसे रहता है? यज्ञोपवीतधारक मदनगंज-किशनगढ़ 305801 मिथ्यामार्ग के पोषक कैसे हो गये? जिला-अजमेर (राजस्थान) 22 सितम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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